बुधवार, 27 जुलाई 2011

लक्षलिंग में चढ़ता है एक लाख चावल !

छत्तीसगढ़ की काशी के नाम से विख्यात लक्ष्मणेश्वर की नगरी खरौद में सावन सोमवार पर श्रद्धालुओं का तांता लगता है। भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन के लिए प्रदेश से अनेक जिलों के अलावा दूसरे राज्यों से भी दर्शनार्थी भगवान शिव के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। यहां सावन सोमवार के दिन सुबह से श्रद्धालुओं की लगी कतारें, देर रात तक लगी रहती हैं और भक्तों के हजारों की संख्या में उमड़ने के कारण मेला का स्वरूप निर्मित हो जाता है। भगवान लक्ष्मणेश्वर स्थित ‘लक्षलिंग’ में एक लाख चावल चढ़ाया जाता है और श्रद्धालुओं में असीम मान्यता होने से दर्शन करने वालों की संख्या में दिनों-दिन इजाफा होता जा रहा है। प्रत्येक सावन सोमवार में हजारों लोग भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन करते हैं और पुण्य लाभ के भागी बनते हैं।
8 वीं शताब्दी में बने लक्ष्मणेश्वर मंदिर की अपनी विरासत है और यह मंदिर अपनी स्थापत्य कला के लिए छग ही नहीं, वरन् देश भर में जाना जाता है। कई बार यहां विदेशों से भी इतिहासकारों का आना हुआ है। खासकर, खरौद में एक और मंदिर ‘ईंदलदेव’ है, जहां की ‘स्थापत्य कला’ देखते ही बनती है। इसी के चलते दूर-दूर से इस मंदिर को लोगों का हुजूम उमड़ता है, वहीं इतिहासकारों व पुराविदों के अध्ययन का केन्द्र, यह मंदिर बरसों से बना हुआ है। दूसरी ओर खरौद स्थित लक्ष्मणेश्वर मंदिर में सावन सोमवार के अलावा तेरस पर भी श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। साथ ही ‘महाशिवरात्रि’ पर हजारों लोग भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन के लिए उमड़ते हैं। उड़ीसा, मध्यप्रदेश, झारखंड समेत अन्य राज्यों से बड़ी संख्या में दर्शन के लिए लोग पहुंचते हैं।
अभी सावन महीने में हर सोमवार को हजारों श्रद्धालु लक्ष्मणेश्वर नगरी की ओर कूच करते हैं। सुबह से ही ‘बोल-बम’ के नारे के साथ मंदिर परिसर व पूरा नगर गूंजायमान हो जाता है, क्योंकि दूर-दूर से कांवरियों का जत्था पहुंचता है। श्रद्धालुओं की भीड़ के चलते उन्हें भगवान के दर्शन पाने घंटों लग जाते हैं और वे कतार में लगकर अपनी मनोकामना पूरी करने भगवान से प्रार्थना करते हैं। मंदिर परिसर के बाहर कुछ सामाजिक संगठनों के द्वारा भक्तों को नीबू पानी पिलाया जाता है और नाश्ता की भी व्यवस्था की जाती है।
भगवान शिव के दर्शन के लिए रविवार की शाम को ही दूर-दूर से आए श्रद्धालु पहुंच जाते हैं। साथ ही धार्मिक नगरी शिवरीनारायण में भी भक्त ठहरे रहते हैं। इसके बाद महानदी के त्रिवेणी संगम से कांवरिए जल भरकर खरौद पहुंचते हैं। इस दौरान पूरे मार्ग में बोल-बम का नारा गूंजता रहता है। मंदिर परिसर में भी गेरूवां रंग पहने कांवरिए पूरे उत्साह के साथ भगवान के दर्शन करते हैं। वे पैदल ही दूर-दूर से आते हैं और उनके पांव में छाले भी पड़ जाते हैं, मगर उनकी आस्था कहें कि भगवान लक्ष्मणेश्वर की असीम कृपा, किसी के पग नहीं रूकते और न ही, किसी तरह के दर्द का अहसास होता है।
इस बारे में मंदिर के पुजारी सुधीर मिश्रा ने बताया कि 8 वीं सदी में बना यह मंदिर आज भी लोगों के आकर्षण का केन्द्र है। साथ ही भक्तों में भगवान लक्ष्मणेश्वर के प्रति असीम मान्यता है, क्योंकि यहां सच्चे मन से जो भी मांगा जाता है, वह पूरी होती है। लिहाजा छग ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों से भी दर्शनार्थी आते हैं। सावन सोमवार के दिन सुबह से मंदिर में लंबी कतारें लग जाती हैं, इससे पहले रात्रि से ही कांवरियों का जत्था का धार्मिक नगरी में आगमन हो जाता है और वे भगवान के गान कर रतजगा भी करते हैं। उन्होंने बताया कि लक्ष्मणेश्वर में जो लक्षलिंग स्थित है, वैसा किसी भी शिव मंदिर में देखने को नहीं मिलता। यही कारण है कि लोग, भगवान के एक झलक पाने चले आते हैं। कई श्रद्धालु ऐसे भी होते हैं, जो हर अवसरों पर आते हैं और भगवान के आशीर्वाद के कृपापात्र बनते हैं। पुजारी श्री मिश्रा ने बताया सावन सोमवार के अलावा तेरस में भी इतनी ही भीड़ होती है। महाशिवरात्रि तो छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा पर्व यहीं होता है और मेला का माहौल होता है, क्योंकि हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं। महाशिवरात्रि के दिन महिला व पुरूषों की अलग-अलग कतारें होती हैं, फिर भी दर्शन पाने में घंटों लग जाते हैं।


जमीं से 30 फीट उपर
भगवान लक्ष्मणेश्वर मंदिर में जो लक्षलिंग स्थित है, जिसमें एक लाख छिद्र होने की मान्यता है। वह जमीन से करीब 30 फीट उपर है और इसे स्वयंभू लिंग भी माना जाता है। लक्षलिंग पर चढ़ाया जल मंदिर के पीछे स्थित कुण्ड में चले जाने की भी मान्यता है, क्योंकि कुण्ड कभी सूखता नहीं।


क्षयरोग होता है दूर
ऐसी भी मान्यता है कि भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन मात्र से क्षयरोग दूर हो जाता है। बरसों से लोगों मे मन में यह आस्था कायम है और इसके कारण भी भक्त दूर-दूर से दर्शन के लिए आते हैं।

संतान प्राप्ति की भी मान्यता
भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन से निःसंतान दंपती को संतान प्राप्ति की भी मान्यता है। इसी के चलते दूर-दूर से ऐसी दंपती भगवान के द्वार पहुंचते हैं और मत्था टेकते हैं, जो संतान से महरूम हैं। उनमें ऐसी मान्यता है कि भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन से यह मुराद पूरा होता है।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

‘भगवान जगन्नाथ जी का मूल स्थान है शिवरीनारायण’

छत्तीसगढ़ के गुप्त प्रयाग के नाम से विख्यात धार्मिक नगरीशिवरीनारायणमें हर बरस निकलने वालीरथयात्राकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक है और दशकों से रथयात्रा की परिपाटी चलती रही है। शिवरीनारायण में निकलने वाली रथयात्रा की महिमा इसलिए और बढ़ जाती है, क्योंकि पुरी ( उड़ीसा ) में विराजे भगवान जगन्नाथ जी का मूल स्थानशिवरीनारायणको माना जाता है। यही कारण है कि रथयात्रा के दिन शिवरीनारायण में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है तथा क्षेत्र के सैकड़ों के लोग यहां दर्शनार्थ पहुंचते हैं।
दरअसल, शिवरीनारायण, रायपुर जिले से लगे होने तथा जांजगीर-चांपा जिले के अंतिम छोर में बसे होने के कारण आसपास गांवों के लोगों का हुजूम रथयात्रा देखने उमड़ता है। जिस तरह पुरी में मनाई जाने वाली रथयात्रा की प्रसिद्धि देश-दुनिया में है, उसी तरह शिवरीनारायण में मनने वाली रथयात्रा की अपनी पहचान छत्तीसगढ़ में कायम है। इससे इस बात से भी समझा जा सकता है कि दशकों से चली आ रही इस परंपरा के प्रति लोगों में असीम श्रद्धा है और वे पूरी तन्मयता के साथ भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। भगवान के एक दर्शन पाने वे हर पल लालायित नजर आते हैं और जब रथयात्रा निकलती है, उस दौरान भगवान के दर्शन करने तथा प्रसाद पाने के लिए सैकड़ों की संख्या में भीड़ जुटती है।
इस बारे में शिवरीनारायण के मठाधीश राजेश्री महंत रामसुंदर दास जी का कहना है कि प्रदेश में तो शिवरीनारायण से निकलने वाली रथयात्रा की पहचान दशकों से कायम है। साथ ही कई अन्य राज्यों से भी साधु-संत पहुंचते हैं। रथयात्रा के इतर शिवरीनारायण में श्रद्धालु दर्शनार्थ पहुंचते रहते हैं, मगर रथयात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन का फल श्रद्धालुओं को उतना ही मिलता है, जितना इस दिन पुरी के भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन से पुण्य मिलता है, क्योंकि शिवरीनारायण, भगवान जगन्नाथ जी का मूल स्थान है। उन्होंने बताया कि माघी पूर्णिमा के समय शिवरीनारायण में मेला लगता है, जो छग का सबसे बड़ा मेला है। इसमें उड़ीसा, झारखंड, मध्यप्रदेश समेत अन्य राज्यों के लोग आते हैं। माघी पूर्णिमा के दिन त्रिवेणी संगम में शाही स्नान साधु-संत करते हैं और लोगों की भी भीड़ उमड़ती है, क्योंकि भगवान जगन्नाथ, एक दिन के लिए शिवरीनारायण मंदिर में विराजते हैं।
उल्लेखनीय है कि शिवरीनारायण की अपनी एक सांस्कृतिक व धार्मिक विरासत है और इसीलिए छग सरकार ने इसे ‘धार्मिक नगरी’ घोषिेत किया है। साथ ही छग में शिवरीनारायण को गुप्त प्रयाग के रूप में जाना जाता है और यह भी किवदंति है कि भगवान राम, इसी रास्ते से होकर गए थे, जिसके प्रमाण यहां के जानकार आज भी बताते हैं। जैसा रामायण में भगवान राम का ‘वरगमन’ का उल्लेख है, कुछ उसी तरह से शिवरीनारायण के साथ धार्मिक मान्यता भी जुड़ी हुई हैं। यह भी कहा जाता है कि भगवान राम को वनगमन के समय यहीं माता शबरी ने बेर खिलाए थे, इसके कारण इस नगरी का नाम ‘शबरीनारायण’ पड़ा। हालांकि, बाद में इसे शिवरीनारायण के तौर पर पुकारा जाने लगा।
शिवरीनाराण में ऐसी कई स्थितियां हैं, जिससे पता चलता है कि भगवान राम ने नाव पर सवार होकर नदी पार की थी। कालांतर में यही नदी, महानदी अर्थात चित्रोत्पला नदी कहलायी। नदी के उस पार एक बरगद का पेड़ है, जहां नाव जाकर रूकी थी, ऐसा भी जानकार बताते हैं। इस तरह ऐसे कई प्रमाण जानकार बताते हैं, जिसके कारण इस धार्मिक नगरी के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ती जा रही है।
शिवरीनारायण में तीन नदियों का त्रिवेणी संगम है, जहां महानदी ( चित्रोत्पला ), जोंक व शिवनाथ नदी एक जगह पर आकर मिली हैं। इसके कारण भी शिवरीनारायण की महत्ता उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद के सामान है, क्योंकि वहां तर्पण के बाद पुण्य आत्मा जितनी शांति मिलती है, कुछ ऐसी ही मान्यता त्रिवेणी संगम में ‘तर्पण’ का है। इसी के चलते छग ही नहीं, वरन अन्य प्रदेशों से भी लोगों का तर्पण के लिए आना होता है।
बहरहाल, शिवरीनारायण की धार्मिक मान्यता बढ़ती जा रही है। साथ ही प्रसिद्धि भी, क्योंकि पर्यटन सिटी बनने के बाद यह देश के नक्शे पर आ गया है। भविष्य में सरकार इस नगरी के विकास पर ध्यान दे तो निश्चित ही आने वाले दिनों में दर्शनार्थियों का रेला उमड़ेगा।


छग की काशी ‘खरौद’ की भी महत्ता
खरौद को छत्तीसगढ़ की काशी के नाम भी जाना जाता है। यहां भगवान लक्ष्मणेश्वर भगवान विराजे हैं। भगवान लक्ष्मणेश्वर की महत्ता इसलिए है कि यहां लक्षलिंग है, जिसमें एक लाख छिद्र हैं और यहां सच्चे मन से जो भी मन्नतें मांगी जाती हैं, वह पूरी होती हैं। खरौद में महाशिवरात्रि पर श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है, क्योंकि इस दिन हजारों की संख्या में लोग, दर्शन के लिए पहुंचते हैं। महाशिवरात्रि के दिन भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन करने से शुभ फल प्राप्त होता है। इसके अलावा सावन माह तथा तेरस के समय भी भगवान के दर्शन के लिए भक्तों की कतार लगी रहती है।

शुक्रवार, 24 जून 2011

‘राष्ट्रपति को भा गई छत्तीसगढ़ की आत्मीयता’

छत्तीसगढ़ नेधान का कटोराके तौर पर देश-दुनिया में पहचान रखी है। प्रदेश की प्राचीन संस्कृति लोककला यहां की प्रमुख विरासत है। छग में दूसरे राज्यों तथा अन्य देशों से जब भी कोई पहुंचते हैं तो वे सहसा ही यहां के लोगों की आत्मीयता से अभिभूत हो जाते हैं। वनांचल क्षेत्रों की आदिवासी संस्कृति परंपरा जानकर हर कोई वाह-वाह किए बगैर नहीं रहता और यहां की यादों को अपनी संस्मरण में उतार लेते हैं। छत्तीसगढ़ के लिए अक्सर कहा जाता है - ‘छत्तीसगढ़िया-सबसे बढ़िया यह उक्ति आज की बनाई हुई नहीं है, बल्कि बरसों से ऐसा ही छत्तीसगढ़ियों के लिए प्रचलित है। प्रदेश के रहवासियों को इसलिए ऐसा कहा जाता है, क्योंकि वे सहज, सरल होने के साथ-साथ आत्मीयता के गुणों से लबरेज माने जाते हैं। इस बात को जब भी अवसर मिलता है, तब-तब छत्तीसगढ़ियों ने साबित भी किया है। छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा तो मिला हुआ है ही, साथ ही यह राज्य मेंगुरतुर गोठके तौर पर भी जानी जाती है। छत्तीसगढ़ी में इतनी मिठास है कि दूसरे राज्यों से आकर यहां रहने वाले लोग भी धीरे-धीरे इस भाषा को बोलचाल में शामिल कर लेते हैं।

इधर दो दिनी छत्तीसगढ़ के दौरे पर राजधानी रायपुर पहुंची, राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल भी प्रदेश की अवाम की आत्मीयता से गदगद नजर आईं। वैसे राष्ट्रपति श्रीमती पाटिल, दूसरी बार छत्तीसगढ़ के प्रवास पर आई हैं। लिहाजा, संबोधन के दौरान उनका छग तथा यहां के रहवासियों से सीधा जुड़ाव देखा गया। राजधानी की विधानसभा में बने सेंट्रल-हॉल का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा कि छग में वे दूसरी बार आई हैं और जिस तरह यहां की जनता में आत्मीयता है, वह काबिले तारीफ हैं। साथ ही उन्होंने छग के विकास के मामले में बढ़ते सोपान के लिए प्रदेश की जनता को बधाई दी। उन्होंने नक्सलियों को हिंसा व बंदूक की लड़ाई छोड़, मुख्यधारा में लौटने का आह्वान करते हुए, अपराध व हिंसा को समाज, राज्य तथा देश के लिए खतरनाक बताया। महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती पाटिल ने कहा कि छग में लिंगानुपात, अन्य दूसरे राज्यों की अपेक्षा बेहतर है, उन्होंने बढ़ते भ्रूणहत्या को घोर अपराध करार दिया। उन्होंने कहा कि महिलाओं के उत्थान की दिशा में हर स्तर पर प्रयास होना चाहिए, इसके बगैर सामाजिक विकास संभव नहीं है। जब महिलाएं आगे बढ़ेंगी तो निश्चित ही प्रदेश व देश प्रगति करेगा और समाज विकसित होगा।
इस अवसर पर महामहिम राज्यपाल श्री शेखर दत्त, मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, विधानसभा अध्यक्ष धरम लाल कौशिक, नेता प्रतिपक्ष रवीन्द्र चौबे समेत विधानसभा के सदस्यगण व अफसर उपस्थित थे।



न कांग्रेस की जीत, न भाजपा की
अपने प्रवास के दूसरे दिन अर्थात् 25 जून को महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती पाटिल, रायपुर नगर निगम की नई बिल्डिंग को लोकार्पित करेंगी। इस तरह बिल्डिंग के लोकार्पण के बाद यह विवाद भी थम जाएगा कि आखिर भवन को किसके हाथों लोकार्पित कराया जाए ? दरअसल, नगर निगम में कांग्रेस की महापौर श्रीमती किरणमयी नायक हैं और प्रदेश में भाजपा की सरकार तथा सभापति भाजपा के हैं, ऐसे में पिछले कुछ महीनों से यह विवाद छाया रहा। कांग्रेस के लोग चाहते थे कि इस भवन का लोकार्पण, यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी या फिर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह करें, दूसरी तरफ भाजपा के लोग यह चाहते थे कि भवन का लोकार्पण राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी या फिर लालकृष्ण आडवाणी करें। हालांकि, इस विवाद का अंत बेहतर तरीके से हो रहा है, क्योंकि न तो कांग्रेस की जिद पूरी हुई और न ही, भाजपा की। यह कहना सही होगा कि निगम की नई बिल्डिंग का लोकार्पण महामहिम राष्ट्रपति के हाथों होना भी एक सुनहरा पल होगा, क्योंकि इतनी बड़ी उम्मीद किसी को न थीं। आखिर कहा भी जाता है- जो होता है, अच्छे के लिए होता है।

मंगलवार, 14 जून 2011

यहां होता है तालाब का विवाह !

- 80 बरस बाद दोहराई गई परंपरा
- केरा गांव के लोगों का अनूठा कार्य
- तालाबों के अस्तित्व को बचाने की मुहिम
- जल संरक्षण की दिशा में ग्रामीणों का अहम योगदान
- ‘जल ही जीवन है’, ‘जल है तो कल है’ का संदेश

भारतीय संस्कृति में संस्कार का अपना एक अलग ही स्थान है। सोलह संस्कारों में से एक होता है, विवाह संस्कार। देश-दुनिया में चाहे कोई भी वर्ग या समाज हो, हर किसी के अपने विवाह के तरीके होते हैं। मानव जीवन में वंश वृद्धि के लिए भी विवाह का महत्व सदियों से कायम है। इसके लिए समाज में एक दस्तूर भी तय किया गया है। ऐसे में आपको यह बताया जाए कि तालाब का भी विवाह होता है तो निश्चित ही आप चौंकेंगे ! मगर ऐसी विवाह की परंपरा को दोहराई गई है, छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के केरा गांव में, जहां 80 बरसों बाद एक बार फिर तालाब का विवाह कराया गया। सभी रीति-रिवाजों के साथ ग्रामीणों ने दो दिनों तक यहां राजापारा नाम के तालाब के विवाह संस्कार को पूर्ण कराया और इस तरह तालाबों के संरक्षण के साथ, उसके अस्तित्व को बचाने की गांव वालों की मुहिम जरूर रंग लाएगी।

दरअसल, महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना के तहत करीब 5 लाख रूपये खर्च कर केरा गांव के ‘राजापारा तालाब’ का गहरीकरण कराया गया और जल संरक्षण की दिशा में ग्रामीणों ने अहम योगदान देते हुए, एक पुरानी परंपरा के माध्यम से घटते जल स्तर को बचाने के लिए अपनी पूरी सहभागिता निभाई। इस अनूठे विवाह के बारे में जानकर कोई भी एकबारगी विश्वास नहीं कर रहा है और यही कारण है कि केरा में संपन्न हुई इस अनूठी परंपरा, समाज के लिए एक मिसाल भी साबित हो रही हैं। ‘जल ही जीवन है’, ‘जल है तो कल है’, इन सूत्र वाक्यों को जीवन में उतारते हुए हमें ‘जल’ को बचाने के लिए हर स्तर पर कोशिश करनी चाहिए। इस लिहाज से निश्चित ही केरा गांव के ग्रामीणों ने अनुकरणीय कार्य किया है।

ग्राम पंचायत केरा ( नवागढ़) के सरपंच लोकेश शुक्ला ने बताया कि आठ दशक पहले गांव के ‘बर तालाब’ में इस तरह विवाह का आयोजन किया गया था। इसके बाद यह परंपरा अभी निभाई गई है। उनका कहना है कि जब भी गांव में शुभ कार्य होता है तो ग्रामीणों द्वारा तालाब विवाह की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यह तय नहीं है कि कब विवाह संस्कार का आयोजन होगा और इसके लिए एक ही तालाब तय नहीं रहता। पूर्वजों द्वारा ऐसी परिपाटी की शुरूआत की गई थी, उस परंपरा को अरसे बाद निभाने का मौका नई पीढ़ी को अब मिला है।

सरंपच श्री शुक्ला ने बताया कि जब उन्हें तालाब के विवाह कराने संबंधी जानकारी मिली तो वे अभिभूत हो गए और इसके लिए ग्रामीणों को हर संभव सहयोग का भरोसा दिलाया। 11 जून को कलश यात्रा के साथ विवाह संस्कार की प्रक्रिया शुरू हुई। इस दौरान कलश यात्रा में बड़ी संख्या में कन्याएं, युवती व महिलाएं समेत ग्रामीण शामिल हुए। कलश कलश गांव की गलियों से घूमती हुई चंडी मां मंदिर होते हुए राजापारा तालाब पहुंची। यहां दो दिनों तक विवाह कार्यक्रम पूरे रीति-रिवाजों के साथ संपन्न कराया गया।

उन्होंने बताया कि गांव में तालाब विवाह की पुरानी परिपाटी तो है ही, साथ ही आज के दौर में घटते जल स्तर के लिहाज से भी यह इसलिए काफी महत्वपूर्ण भी है कि इस बार ‘राजापारा तालाब’ का मनरेगा के तहत गहरीकरण कराया गया है। इससे जल संवर्धन की दिशा में भी बेहतर कार्य हो रहा है। दूसरी ओर ग्रामीणों में यह भी मान्यता है कि तालाब के विवाह से गांव में जलजनित बीमारी नहीं फैलती और किसी तरह दैवीय प्रकोप का संकट नहीं होता। लोगों में इसलिए भी ‘तालाब विवाह’ के प्रति लगाव है कि 100 कन्याओं के विवाह की अपेक्षा तालाब विवाह में सहभागिता से उतने पुण्य की प्राप्ति होती है। इन्हीं सब कारण से लोगों का रूझान बढ़ा और 80 बरस बाद एक बार फिर गांव में तालाब विवाह की परंपरा दुहराई जा सकी।

वर बने ‘वरूणदेव’, वधु बनी ‘वरूणीदेवी’
केरा गांव में संपन्न हुए तालाब विवाह में वर के रूप में भगवान वरूणदेव को विराजित किया गया, वहीं वधु के रूप में वरूणीदेवी को पूजा गया। ग्रामीणों ने पूरे उत्साह से इनका विवाह रचाया और दो दिन तक चले विवाह कार्यक्रम में हर वह रस्म पूरी की गई, जो किसी व्यक्ति की शादी में निभाई जाती है। तालाब विवाह में लोगों का उत्साह देखते बना और उनका हुजूम उमड़ पड़ा। जिन्होंने इस अनूठे विवाह के बारे में जाना, वह सहसा ही खींचे चला आया।


विवाह
की साक्षी बनीं सांसद
केरा की ‘तालाब विवाह’ परंपरा की साक्षी जांजगीर-चांपा की सांसद श्रीमती कमला पाटले भी बनीं। वे यहां ग्रामीणों के उत्साह बढ़ाने विशेष तौर पर उपस्थित रहीं। इस दौरान उन्होंने कहा कि ग्रामीणों का प्रयास काबिले तारीफ है, क्योंकि एक तरफ दिनों-दिन जल स्तर घट रहा है तथा पुराने तालाबों का अस्तित्व मिट रहा है। ऐसे में तालाब संरक्षण कार्य के दृष्टिकोण से लुप्त होती परंपरा भी समाज को संदेश देती है। इस शुभ आयोजन में पहुंचना ही अपने आप में बड़ी बात है, क्योंकि जल के बिना कोई भी जीव-जंतु जीवित नहीं रह सकता।

शनिवार, 26 मार्च 2011

शिव की बारात में उमड़े ‘नागा साधु’

पीथमपुर में रंग पंचमी से शुरू होने वाले मेले में भीड़ उमड़ रही है। मेले के पहले दिन भगवान शिव की बारात निकली, जिसमें देश के अनेक अखाड़ों से आए नागा साधु बड़ी संख्या में शामिल हुए और शौर्य प्रदर्शन किए। बाबा कलेश्वर नाथ धाम में दर्शन के लिए भक्त दूर-दूर से पहुंचते हैं। मेले की रौनकता में पहले से जरूर कमी आई है, मगर भगवान कलेश्वरनाथ के प्रति असीम श्रद्धा का ही परिणाम है कि अब भी मेले के माध्यम से एक प्राचीन संस्कृति की पहचान कायम है।

जिला मुख्यालय जांजगीर से 15 किमी दूर ग्राम पीथमपुर में बरसों से मेला लगता आ रहा है। बाबा कलेश्वरनाथ मंदिर में पूजा-पाठ के बाद चांदी की पालकी में भगवान शिव की बारात निकलती है और इस तरह मेला शुरू होता है। रंग-पंचमी के ही दिन पीथमपुर में मेला लगता है और यह सात दिन चलता है। पहले मेला तीन दिन का हुआ करता था। बदलते समय के साथ मेले के स्वरूप में काफी परिवर्तन आया है। मेले का खास आकर्षण देश के अनेक प्रदेशों के अखाड़ों से आए नागा साधु होते हैं। जिनके आशीर्वाद के लिए भी दूर-दूर से भक्त पहुंचते हैं।

पीथमपुर में लगने वाला मेला अंचल का अंतिम मेला होने के कारण लोगों का उत्साह देखने लायक रहता है और आसपास गांवों के अलावा दूसरे जिलों से भी लोगों का हुजूम उमड़ता है। मेले में मनोरंजन के साधन की भी व्यवस्था होती है, इसके चलते शाम को अधिक संख्या में लोगों का जमावड़ा होता है। इस वर्ष पीथमपुर मेले में इलाहाबाद, द्वारिकानाथ, बद्रीनाथ, गुजरात समेत अन्य स्थानों से पहुंचे हैं।


मंदिर के इतिहास पर एक नजर

बाबा कलेश्वरनाथ मंदिर परिसर की दीवार में लगे शिलालेख के मुताबिक मंदिर का निर्माण कार्तिक सुदी 2, संवत 1755 को किया गया था। बाद में मंदिर के जीर्ण-शीर्ण होने के कारण चांपा के जमींदारों ने निर्माण कराया। भगवान शिवजी की बारात की परिपाटी 1930 से शुरू होने की जानकारी मिलती है। इसके बाद से लगातर रंग पंचमी के दिन बारात की परंपरा कायम है और दूर-दूर से आकर नागा साधु शामिल होते हैं। पीथमपुर के कलेश्वरनाथ मंदिर में स्वयंभू शिवलिंग है, इसे सपने में देखने के बाद एक परिवार के व्यक्ति ने खोदाई करवाकर निकलवाया था और फिर मंदिर का निर्माण कर प्रतिमा की स्थापना की गई। इस तरह पीथमपुर में शिव की बारात के साथ मेले का सिलसिला अब तक चल रहा है।

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

एक मिसाल परोपकार की

भारत के लोगों में परोपकार की धारणा बरसों से कायम है। भले ही परोपकार के तरीकों में समय-समय पद बदलाव जरूर आए हों, लेकिन अंततः यही कहा जा सकता है कि लोगों के दिलों में अब भी परोपकार की भावना समाई हुई है। इस बात को एक बार फिर सिद्ध कर दिखाया है, बेंगलूर के आईटी क्षेत्र के दिग्गज अजीम प्रेमजी ने। उन्होंने बिना किसी स्वार्थ के अपनी जानी-मानी कंपनी विप्रो की दौलत में से करीब 88 सौ करोड़ रूपये एक टस्ट को दिया है, जो काबिले तारीफ है। ऐसा कम देखने को मिलता है, जब कोई बड़ा उद्योगपति अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा परोपकार के लिए दें और लोगों के दुख-दर्द में सहभागी बनें। समाजसेवी अजीम प्रेमजी का परोपकार की सोच, आज के समाज के लिए बड़ी मिसाल है, जिससे अन्य उद्योगपतियों के बीच एक ऐसा संदेश गया है कि वे भी कुछ इसी तरह कार्य कर समाज के प्रति अपना दायित्व प्रदर्शित करें।
अधिकतर यह देखा जाता है कि पैसा आने के बाद उसके प्रति व्यक्ति का मोह कायम हो जाता है, साथ ही वह अपनी सौ-दो सौ पीढ़ी के बारे में सोचने लगता है। ऐसे में यह भी समझने की जरूरत रहनी चाहिए कि हम अपनी पीढ़ी को निकम्मे बनाने की कोशिश करते हैं। यहां एक बात बताना जरूरी है कि अमेरिका के माइक्रोसाफ्ट कंपनी के मालिक बिल गेट्स एक अरसे से दुनिया के उद्योगपतियों के बीच यह अभियान चला रहे हैं कि उद्योगपति अपनी दौलत परोपकार में भी लगाएं, जिससे समाजसेवा के प्रति उनकी समर्पण की भावना सीधा लोगों से जुड़ सकें। कुल-मिलाकर यही कहा जा सकता है कि कुछ लोग समाजसेवा के नाम अस्पतालों तथा आश्रमों में फल व कपड़ा बांटकर वाह-वाही लुटने की कोशिश करते हैं, उनके लिए यह सबक है। ऐसा नहीं है कि परोपकार के लिए अधिक राशि चाहिए, कम राशि होने के बाद भी लोगों के बीच समाजसेवा किया जा सकता है, लेकिन उसमें किसी तरह का दिखावा नहीं होना चाहिए। यहां एक बार फिर समाजसेवी श्री प्रेमजी का जिक्र करना होगा, क्योंकि उन्होंने 88 सौ करोड़ रूपये देकर केवल परोपकार की भावना को सच्चे मन से व्यक्त किया है।
मैं समाजसेवी श्री प्रेमजी से परिचित नहीं हूं, लेकिन मीडिया में उनके बारे में जानकारी मिलने के बाद, अपने आपको इस परोपकार की मिसाल पर लिखने से नहीं रोक सका। निश्चित ही ऐसा व्यक्तित्व भारतीय समाज और देश के लिए गौरव की बात है, क्योंकि जिस देश में आज की स्थिति में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हो गई हों और धनपुरूशों में पैसा बटोरने का ऐसा बुखार चढ़ गया है, जिससे गरीब जनता पीस रही है। देश के धन को विदेशी बैंकों में जमाकर, उसे काला धन बनाने का जो कुत्सित प्रयास बरसों से जारी है, ऐसे लोगों को श्री प्रेमजी की परोपकारी भावना से रूबरू होना चाहिए, जिन्होंने अपनी मेहनत की कमाई लोगों की भलाई के लिए न्यौछावर कर दिया।

बुधवार, 10 नवंबर 2010

ईट से बना खरौद का ईंदलदेव

जिला मुख्यालय जांजगीर से 55 किमी की दूरी पर छत्तीसगढ़ की काशी के नाम से विख्यात लक्ष्मणेश्वर की नगरी खरौद स्थित है। इस धार्मिक नगरी में भगवान लक्ष्णेश्वर का मंदिर है। यहां के लक्षलिंग में एक लाख छिद्र हैं और यहां महाशिवरात्रि समेत तेरस और सावन मास मंे मेला लगता है तथा श्रद्धालुओं की संख्या भी हजारों की संख्या में जुटती है। खरौद में शबरी माता का भी मंदिर है, इसकी प्राचीन पहचान है। मंदिर के द्वार पर अद्धनारीश्वर की प्रतिमा है, जिस देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। पर्यटक, खरौद में पुरातात्विक धरोहर की एक झलक देखने की तमन्ना हर किसी में होती है। भगवान लक्ष्मणेश्वर की ख्याति प्रदेश के अलावा दूसरे स्थानों में भी है। खरौद के मांझापारा में स्थित ईंदलदेव का मंदिर बरसों से लोगों का आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। पुरातत्व के जानकार इस मंदिर को 6 वीं शताब्दी का बताते हैं। इस मंदिर को जांजगीर-चांपा जिले का सबसे पुराना मंदिर माना जाता है। ईंदलदेव मंदिर में स्थापत्यकला की अमिट छाप देखने को मिलती है। मंदिर की विशेषता यह है कि मंदिर का द्वार पिछले हिस्से में है और मुख्य द्वार के दोनों ओर मां गंगा की प्रतिमा बनी हुई है, वह भी ईट से। खास बात यह भी है कि मंदिर में प्र्रतिमा विराजित नहीं है। करीब 40 फीट उंचे ईंदलदेव मंदिर के चारों ओर ईट से आकर्षक कलाकृतियां बनाई गई हैं, कहीं गुंबद का निर्माण किया गया है तो कहीं, देवी-देवताओं के चित्रों को भी आकर्षक ढंग से उकेरा गया है। मंदिर की महत्ता और प्राचीनता को देखते हुए न केवल छत्तीसगढ़, बल्कि दूसरे प्रदेशों से भी पुराविद और इतिहासकार शोध के लिए आते हैं। विदेशों से भी पर्यटक मंदिर की बनावट देखने आ चुके हैं और ईट से बने ईंदलदेव मंदिर की खासियत को देखकर वे भी हतप्रभ रहे हैं। मंदिर के संरक्षण की जिम्मेदारी पुरातत्व विभाग के पास है और इस मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए कुछ प्रयास हुए हैं, लेकिन जिस तरह से प्राकृतिक आपदा के कारण ईट से बनी कलाकृति मिट रही है, जिसे बचाए और संरक्षित किए जाने की जरूरत है। अंधड़ और बारिष के प्रभाव में बरसों से मंदिर के रहने के कारण चारों ओर बनी स्थापत्यकला की बेजोड़ कलाकृति और चित्र प्रभावित हो रहे हैं। मंदिर की विरासत को कायम रखने प्राकृतिक आपदा के प्रभाव से निपटने पुराविद विभाग को ठोस पहल करना चाहिए। एक दशक पहले ईंटलदेव मंदिर की हालत काफी बिगड़ गई थी। बाद में पुरातत्व विभाग ने सुध लेते हुए मंदिर का कायाकल्प किया, लेकिन फिर भी मंदिर की दीवारों में बनी बेजोड़ कलाकृति को बचाने की कवायद आगामी दिनों में भी जरूरी है। पुरातत्व के जानकार डा. नन्हें प्रसाद द्विवेदी का कहना है कि ईंदलदेव मंदिर की प्राचीनता के कारण इसके बारे में लगातार शोध कार्य हो रहे हैं और ईट से बने होने के कारण यह स्थापत्यकला की दृष्टि से जिले ही नहीं, वरन प्रदेश की बेजोड़ कृति है, जिसकी बनावट देखते ही बनती है।