सोमवार, 5 दिसंबर 2011

लघुकथा - जीवन पथ

मैं जिस शहर में रहता हूं, वहां एक नेत्रहीन व्यक्ति है। वे पूरे शहर में खुद ही एक डंडे के सहारे कहीं भी चले जाते हैं। उन्हें इस तरह ‘जीवन पथ’ पर आगे बढ़ते बरसों हो गया। उनकी जिजीविषा देखकर हर कोई हतप्रद रह जाता है। यह तो हम सब कहते रहते हैं कि बेसहारे को सहारे की जरूरत होती है, मगर यह नेत्रहीन व्यक्ति ऐसी सोच रखने वालों के लिए मिसाल है। दरअसल, पिछले दिनों नेत्रहीन व्यक्ति शहर के चौक से गुजर रहा था, इसी दौरान उन्हें सड़क किनारे से आवाज आई कि कोई उसे सड़क पार करा दे। इससे पहले कोई उस असहाय व्यक्ति को पार लगाने आता, उससे पहले ही नेत्रहीन व्यक्ति ने स्वस्फूर्त पहल करते हुए उसे दूसरी छोर पहुंचाया। कथा का तात्पर्य यही है कि किसी को असहाय नहीं समझना चाहिए, मगर जो मदद की अपेक्षा रखते हैं, उन्हें सहायता देने हर समय तैयार रहना चाहिए। ऐसे में नेत्रहीन व्यक्ति का प्रयास निःसंदेह संस्मरणीय है। इससे निश्चित ही सीख मिलती है। यह भी समझ मंे आती है कि यही सबसे बड़ा ‘जीवन पथ’ है।

सोमवार, 21 नवंबर 2011

पीपल पर अजगरों का बसेरा !

छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के भड़ेसर गांव के एक पुराने पीपल पेड़ में सौ से अधिक अजगरों का बसेरा है, वहीं आसपास लोगों के घर भी हैं, परंतु इन सर्पों ने आज तक किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है। इनकी इस विशेष प्रवृत्ति और धार्मिक मान्यता को लेकर ग्रामीण पूजा-अर्चना भी करते हैं। एक पेड़ पर इतनी संख्या में अजगरों को देखने दूर-दूर से लोग आते हैं और जो भी यह बात जानते हैं, उनके बीच यह कौतुहल का विषय हो जाता है। अभी ठंड शुरू होने के साथ ही अजगरों ने पेड़ की खोह से निकलना शुरू कर दिया है। लिहाजा अजगर देखने पहुंचने वाले लोगों का उत्साह देखते ही बनता है।
जिला मुख्यालय जांजगीर से 15 किमी दूर ग्राम भड़ेसर निवासी महात्मा राम पांडे के खलिहान में सौ साल से भी अधिक पुराना पीपल का पेड़ हैं। यहां पांच दशक से अधिक समय से अजगर जमे हुए हैं। पहले इस पेड़ के खोखर में कुछ ही अजगर थे, लेकिन अब इसकी संख्या में वृहद रूप से इजाफा हुआ है और अजगरों की संख्या अब सौ से अधिक पहुंच गई है। 55 वर्षीय श्री पांडे ने बताया कि जहां पीपल का पेड़ है, वहां पहले उनके परिवार के लोग नहीं रहते थे। दस वर्ष पहले ही पेड़ के पास बने मकान में आकर रहने लगे हैं। इतने वर्षों में उन्होंने अजगरों को कुछ भी खाते नहीं देखा है। हां, तालाब में अजगर रात में विचरण करते हैं। उन्होंने बताया कि अजगरों ने कभी किसी व्यक्ति को नुकसान नहीं पहुंचाया है। पशु-पक्षी व अन्य जानवर पेड़ के आसपास बैठे रहते हैं, लेकिन उन्हें भी अजगर कुछ नहीं करते। वे बताते हैं कि पेड़ के पास दर्जन भर से अधिक मकान हैं और कई खलिहान हैं। यहां अजगर कभी दिन में तो कभी रात में विचरण करते देखे जाते हैं श्री पांडे ने बताया कि पीपल का पेड़ पूरी तरह से खोखला हो गया है और अजगर पेड़ के इस किनारे से निकलते हैं तो कभी उस किनारे से। पहले से अब संख्या बढ़ती जा रही है। शुरूआत में एक-दो ही थे। बाद में पचास से अधिक हो गए और अब यह आंकड़ा सौ को भी पार कर गया है। आसपास गांवों मंे अजगर मिलने पर उसे भी लाकर पेड़ पर रख दिया जाता है। जिसे पेड़ पर पहले से रह रहे अजगर अपना लेते हैं। अजगरों का यह अपनत्व भी लोगों को सोचने पर विवश कर देता है।
भड़ेसर के बुजुर्ग ग्रामीणों का कहना है कि जब से वे जानने-समझने लायक हुए हैं, तब से इस पेड़ पर अजगरों को देखते आ रहे हैं। अजगर, गांव में घूमते रहते हैं और नुकसान पहुंचाने की कोशिश नहीं करते। यही कारण है कि लोग, अजगरों को बहुत नजदीक से देखते हैं। वे यह भी बताते हैं कि अजगरों को देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। जिले के अलावा छग के अन्य जगहों से भी लोगों का आना होता है और पेड़ पर अजरों का बसेरा देख, वे भौंचक रह जाते हैं। उन्हें सहसा विश्वास ही नहीं होता कि एक साथ इतने अजगर कैसे रह सकते हैं। वैसे सभी अजगर एक साथ नहीं दिखते। बारी-बारी खोखर से बाहर निकलते हैं। कभी चार, कभी छह तो कभी बीस तक अजगरों को देखने का मौका मिलता है।

ठंड में निकलते हैं बाहर
पीपल पेड़ की खोखली शाखाओं से अजगर ठंड के दिनों में ज्यादा बाहर निकलते हैं। गर्मी में रात को बाहर आते हैं। ठंड में ही देखने के लिए भीड़ जुटती है। हर दिन लोगों का जमावड़ा लगा रहता है। ठंड के मौसम में जैसे ही धूप निकलनी शुरू होती है, वैसे ही अजगर भी धूप सेंकने पेड़ के खोखर से बाहर निकलते हैं। एक-एक कर जब अजगर निकलते हैं तो वह रोमांच भरा नजारा होता है।

‘धनबोड़ा’ मानते हैं ग्रामीण
भड़ेसर के ग्रामीण अजगरों को ‘धनबोड़ा’ मानते हैं। इसी के चलते जहां वे अजगरों की पूजा-अर्चना करते हैं। साथ ही कोई उसे मारता भी नहीं है। ग्रामीणों में आस्था है कि अजगरों के रहने से धन की प्राप्ति होती है और मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है। ग्रामीण हर विशेष अवसर पर अजगरों की आरती उतारने पहुंचते हैं।

गांव की शान बने अजगर
जिला मुख्यालय से लगे होने के बाद भी ग्राम भड़ेसर की पहचान लोगों के बीच नहीं थी, मगर जब से पीपल पेड़ पर अजगर होने की बात सामने आई है, तब से भडे़सर गांव की प्रसिद्धि दूर-दूर तक हो गई है। यही कारण है कि लोग, अजगरों को गांव की शान समझते हैं। जो भी लोग बाहर से देखने आते हैं, उन्हें उस जगह ग्रामीण पहुंचाने भी जाते हैं।

अजगर एक पालतू प्रजाति का जीव : प्रो केशरवानी
शासकीय एमएमआर पीजी कॉलेज चांपा के जंतु विज्ञान के विभागाध्यक्ष प्रो. अश्विनी केशरवानी ने बताया कि अजगर, एक पालतू प्रजाति का जीव है। जो अनुकूल वातावरण मिलने से वर्षों तक एक ही स्थान पर रह सकता है। अजगर, विचरण करते समय भोजन की तलाश कर लेते हैं। छोटे जंतुओं को वे निगल जाते हैं अजगर में जहर नहीं मिलता। इससे वे ज्यादा हिंसक नहीं होते। ये अलग बात है कि लोग, अजगर को खाते न देखे हांे, मगर कुछ न कुछ खाते जरूर हैं। वैसे कुछ दिनों तक अजगर मिट्टी खाकर भी जीवित रह सकता है।

सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

लघुकथा - चिंटी का सामर्थ्य

वैज्ञानिक युग में हम चांद पर पहुंचकर आसियां बसाने की जितनी बातें कर लें, लेकिन हमारासामर्थ्यकई जंतुओं के मुकाबले कम ही नजर आता है। हम जितना भी विकास कर लें, जितनी भी नई तकनीक के माध्यम से जीवन को सुलभ बना लें, लेकिन उन जैसी सामर्थ्य की शक्ति नहीं ला सकते। यही कारण है कि मनुष्य में पूरा सामर्थ्य तो दिखता है, किन्तु समाज उत्थान की दिशा में यह कोई काम नहीं आता। मनुष्य को 84 लाख योनियों में उच्च स्थान दिया गया है और सोचने-समझने की शक्ति भी दी गई है, लेकिन जो सामर्थ्य का परिचय, उसे देना चाहिए, वह मनुष्य नहीं दे पाता। ऐसी स्थिति में मनुष्य-मनुष्य में सामर्थ्यवान होने की लड़ाई चलती है औरखिसियाई बिल्ली की तरह खंभा नोचेकी तर्ज पर एक-दूसरे के सामर्थ्य को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं।
मनुष्य के सामर्थ्य से इतर एक दूसरा पहलू है, वह चिंटी का सामर्थ्य है। चिंटी में गजब का सामर्थ्य दिखता है। दुनिया में वैसे तो कई अन्य प्राणियों की तरह चिंटी छोटा होता है, परंतु सामर्थ्यवान होने की असली तस्वीर चिंटी में ही दिखाई देती है। जब वह अपने से अधिक वजन के एक-एक अन्न के दाने को ले जाता है और यह सिलसिला तब तक चलते रहता है, जब तक उस स्थान से अंतिम ‘ अन्न का दाना’ खत्म न हो जाए। साथ ही चिंटियों में सामर्थ्य की लड़ाई कहीं दिखाई नहीं देती, वे बस ‘कर्म किए जा, फल की इच्छा न करने पर’ विश्वास करते हैं। फलस्वरूप, जब सामर्थ्यवान होने की तुलना होती है तो चिंटी से मनुष्य, कहीं आगे होता है। केवल बलशाही व बुद्धिजीवी होने का दंभ भरकर, ‘सामर्थ्यवान’ नहीं बना जा सकता है, यही शाश्वत सत्य है।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

‘तुर्रीधाम में पहाड़ का सीना चीर बहती है अनवरत जलधारा’

देश में ऐसे अनेक ज्योतिर्लिंग है, जहां दर्शन के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। भक्तों में असीम श्रद्धा भी देखी जाती है। सावन के महीने में शिव मंदिरों की महिमा और ज्यादा बढ़ जाती है, क्योंकि इस माह जो भी मन्नतें सच्चे मन से मांगी जाती है, ऐसी मान्यता है, वह पूरी होती हैं। लोगों में भगवान के प्रति अगाध आस्था ही है, जहां हजारों-लाखों की भीड़ खींची चली आती है।
ऐसा ही एक स्थान है, तुर्रीधाम। छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के सक्ती क्षेत्र अंतर्गत ग्राम तुर्री स्थित है। यहां भगवान शिव का एक ऐसा मंदिर है, जहां पहाड़ का सीना चीर अनवरत जलधारा बहती रहती है। खास बात यह है कि यह जलधारा कहां से बह रही है, अब तक पता नहीं चल सका है। आज भी यह शोध का विषय बना हुआ है कि आखिर पहाड़ी क्षेत्रों से पानी का ऐसा स्त्रोत कहां से है, जहां हर समय पानी की धार बहती रहती है।
दिलचस्प बात यह है कि बरसात में जलधारा का बहाव कम हो जाता है, वहीं गर्मी में जब हर कहीं सूखे की मार होती है, उस दौरान जलधारा में पानी का बहाव बढ़ जाता है। इसके अलावा जलधारा के पानी की खासियत यह भी है कि यह जल बरसों तक खराब नहीं होता। यहां के रहवासियों की मानें तो 100 साल बाद भी जल दूषित नहीं होता। यही कारण है कि तुर्रीधाम के इस जल को ‘गंगाजल’ के समान पवित्र माना जाता है और जल को लोग अपने घर ले जाने के लिए लालायित रहते हैं।
एक बात और महत्वपूर्ण है कि शिव मंदिरों में जब भक्त दर्शन करने जाते हैं तो वहां भगवान शिवलिंग पर जल अर्पित करते हैं, मगर यहां कुछ अलग ही है। जलधारा के पवित्र जल को घर ले जाने श्रद्धालुओं में जद्दोजहद मची रहती है तथा वे कोई न कोई ऐसी सामग्री लेकर पहुचंते हैं, जिसमें जल भरकर ले जाया जा सके। इन्हीं सब विशेषताओं के कारण तुर्रीधाम में दर्शन के लिए छत्तीसगढ़ के अलावा मध्यप्रदेश, झारखंड, उड़ीसा तथा बिहार समेत अन्य राज्यों से भी दर्शनार्थी आते हैं और यहां के मनोरम दृश्य देखकर हतप्रद रह जाते हैं। यहां की अनवरत बहती ‘जलधारा’ सहसा ही किसी को आकर्षित कर लेती हैं। साथ ही लोगों के मन में समाए बगैर नहीं रहता और जो भी एक बार तुर्रीधाम पहुंचता है, वह यहां दोबारा आना चाहता है।
करवाल नाले के किनारे स्थित तुर्रीधाम में भगवान शिव का मंदिर है। यहां अन्य और मंदिर है, जो पहाड़ के उपरी हिस्से में स्थित है। अभी सावन महीने में भी हर सोमवार को ‘तुर्रीधाम’ में हजारों की संख्या में पहुंचे। इस दौरान यहां 15 दिनों का मेला लगता है, जहां मनोरंजन के साधन प्रमुख आकर्षण होता है। महाशिवरात्रि में भी भक्तों की भीड़ रहती है और सावन सोमवार की तरह उस समय भी दर्शन के लिए सुबह से देर रात तक भक्तों की कतार लगी रहती हैं।
किवदंति है कि ‘तुर्रीधाम’ में बरसों पहले एक युवक को सपने में भगवान शिव ने दर्शन दिए और कुछ मांगने को कहा। उस समय ग्राम - तुर्री में पानी की समस्या रहती थी और गर्मी में हर जगह पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची रहती थी। भगवान शिव को उस युवक ने ‘पानी-पानी’ कहा और एक जलधारा बहने लगी, जिसकी धार अब तक नहीं रूकी है। इसके बाद से यहां भगवान शिव का मंदिर बनवाया गया। इस तरह तुर्री ने एक धाम का रूप ले लिया और भक्तों की श्रद्धा भी बढ़ने लगी। लोगों की भक्ति इसलिए और बढ़ जाती है, क्योंकि तुर्री में पानी की समस्या अब कभी नहीं हुई। साथ ही गर्मी में जलधारा के पानी का बहाव तेज होना भी लोगों की जिज्ञासा का विषय बना हुआ है।
तुर्रीधाम मंदिर की व्यवस्था समिति के सदस्य कृष्णकुमार जायसवाल ने बताया कि तुर्रीधाम के भगवान शिव के दर्शन से संतान प्राप्ति होती है। इसी के चलते छग के अलावा दूसरे राज्यों बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश समेत अन्य जगहों से भी निःसंतान दंपती भगवान शिव के दर्शनार्थ पहुंचते हैं। तुर्रीधाम में जो जलधारा बहती है, वह प्रकुति उपहार होने के कारण इसे देखने वाले वैसे तो साल भर आते रहते हैं, मगर सावन महीने के हर सोमवार तथा महाशिवरात्रि पर भक्तों की भीड़ हजारों की संख्या में रहती है। अपनी खास विशेषताओं के कारण ही आज ‘तुर्रीधाम’ की छग ही नहीं, वरन देश के अन्य राज्यों में भी अपनी एक अलग पहचान है।

बुधवार, 27 जुलाई 2011

लक्षलिंग में चढ़ता है एक लाख चावल !

छत्तीसगढ़ की काशी के नाम से विख्यात लक्ष्मणेश्वर की नगरी खरौद में सावन सोमवार पर श्रद्धालुओं का तांता लगता है। भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन के लिए प्रदेश से अनेक जिलों के अलावा दूसरे राज्यों से भी दर्शनार्थी भगवान शिव के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। यहां सावन सोमवार के दिन सुबह से श्रद्धालुओं की लगी कतारें, देर रात तक लगी रहती हैं और भक्तों के हजारों की संख्या में उमड़ने के कारण मेला का स्वरूप निर्मित हो जाता है। भगवान लक्ष्मणेश्वर स्थित ‘लक्षलिंग’ में एक लाख चावल चढ़ाया जाता है और श्रद्धालुओं में असीम मान्यता होने से दर्शन करने वालों की संख्या में दिनों-दिन इजाफा होता जा रहा है। प्रत्येक सावन सोमवार में हजारों लोग भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन करते हैं और पुण्य लाभ के भागी बनते हैं।
8 वीं शताब्दी में बने लक्ष्मणेश्वर मंदिर की अपनी विरासत है और यह मंदिर अपनी स्थापत्य कला के लिए छग ही नहीं, वरन् देश भर में जाना जाता है। कई बार यहां विदेशों से भी इतिहासकारों का आना हुआ है। खासकर, खरौद में एक और मंदिर ‘ईंदलदेव’ है, जहां की ‘स्थापत्य कला’ देखते ही बनती है। इसी के चलते दूर-दूर से इस मंदिर को लोगों का हुजूम उमड़ता है, वहीं इतिहासकारों व पुराविदों के अध्ययन का केन्द्र, यह मंदिर बरसों से बना हुआ है। दूसरी ओर खरौद स्थित लक्ष्मणेश्वर मंदिर में सावन सोमवार के अलावा तेरस पर भी श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। साथ ही ‘महाशिवरात्रि’ पर हजारों लोग भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन के लिए उमड़ते हैं। उड़ीसा, मध्यप्रदेश, झारखंड समेत अन्य राज्यों से बड़ी संख्या में दर्शन के लिए लोग पहुंचते हैं।
अभी सावन महीने में हर सोमवार को हजारों श्रद्धालु लक्ष्मणेश्वर नगरी की ओर कूच करते हैं। सुबह से ही ‘बोल-बम’ के नारे के साथ मंदिर परिसर व पूरा नगर गूंजायमान हो जाता है, क्योंकि दूर-दूर से कांवरियों का जत्था पहुंचता है। श्रद्धालुओं की भीड़ के चलते उन्हें भगवान के दर्शन पाने घंटों लग जाते हैं और वे कतार में लगकर अपनी मनोकामना पूरी करने भगवान से प्रार्थना करते हैं। मंदिर परिसर के बाहर कुछ सामाजिक संगठनों के द्वारा भक्तों को नीबू पानी पिलाया जाता है और नाश्ता की भी व्यवस्था की जाती है।
भगवान शिव के दर्शन के लिए रविवार की शाम को ही दूर-दूर से आए श्रद्धालु पहुंच जाते हैं। साथ ही धार्मिक नगरी शिवरीनारायण में भी भक्त ठहरे रहते हैं। इसके बाद महानदी के त्रिवेणी संगम से कांवरिए जल भरकर खरौद पहुंचते हैं। इस दौरान पूरे मार्ग में बोल-बम का नारा गूंजता रहता है। मंदिर परिसर में भी गेरूवां रंग पहने कांवरिए पूरे उत्साह के साथ भगवान के दर्शन करते हैं। वे पैदल ही दूर-दूर से आते हैं और उनके पांव में छाले भी पड़ जाते हैं, मगर उनकी आस्था कहें कि भगवान लक्ष्मणेश्वर की असीम कृपा, किसी के पग नहीं रूकते और न ही, किसी तरह के दर्द का अहसास होता है।
इस बारे में मंदिर के पुजारी सुधीर मिश्रा ने बताया कि 8 वीं सदी में बना यह मंदिर आज भी लोगों के आकर्षण का केन्द्र है। साथ ही भक्तों में भगवान लक्ष्मणेश्वर के प्रति असीम मान्यता है, क्योंकि यहां सच्चे मन से जो भी मांगा जाता है, वह पूरी होती है। लिहाजा छग ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों से भी दर्शनार्थी आते हैं। सावन सोमवार के दिन सुबह से मंदिर में लंबी कतारें लग जाती हैं, इससे पहले रात्रि से ही कांवरियों का जत्था का धार्मिक नगरी में आगमन हो जाता है और वे भगवान के गान कर रतजगा भी करते हैं। उन्होंने बताया कि लक्ष्मणेश्वर में जो लक्षलिंग स्थित है, वैसा किसी भी शिव मंदिर में देखने को नहीं मिलता। यही कारण है कि लोग, भगवान के एक झलक पाने चले आते हैं। कई श्रद्धालु ऐसे भी होते हैं, जो हर अवसरों पर आते हैं और भगवान के आशीर्वाद के कृपापात्र बनते हैं। पुजारी श्री मिश्रा ने बताया सावन सोमवार के अलावा तेरस में भी इतनी ही भीड़ होती है। महाशिवरात्रि तो छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा पर्व यहीं होता है और मेला का माहौल होता है, क्योंकि हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं। महाशिवरात्रि के दिन महिला व पुरूषों की अलग-अलग कतारें होती हैं, फिर भी दर्शन पाने में घंटों लग जाते हैं।


जमीं से 30 फीट उपर
भगवान लक्ष्मणेश्वर मंदिर में जो लक्षलिंग स्थित है, जिसमें एक लाख छिद्र होने की मान्यता है। वह जमीन से करीब 30 फीट उपर है और इसे स्वयंभू लिंग भी माना जाता है। लक्षलिंग पर चढ़ाया जल मंदिर के पीछे स्थित कुण्ड में चले जाने की भी मान्यता है, क्योंकि कुण्ड कभी सूखता नहीं।


क्षयरोग होता है दूर
ऐसी भी मान्यता है कि भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन मात्र से क्षयरोग दूर हो जाता है। बरसों से लोगों मे मन में यह आस्था कायम है और इसके कारण भी भक्त दूर-दूर से दर्शन के लिए आते हैं।

संतान प्राप्ति की भी मान्यता
भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन से निःसंतान दंपती को संतान प्राप्ति की भी मान्यता है। इसी के चलते दूर-दूर से ऐसी दंपती भगवान के द्वार पहुंचते हैं और मत्था टेकते हैं, जो संतान से महरूम हैं। उनमें ऐसी मान्यता है कि भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन से यह मुराद पूरा होता है।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

‘भगवान जगन्नाथ जी का मूल स्थान है शिवरीनारायण’

छत्तीसगढ़ के गुप्त प्रयाग के नाम से विख्यात धार्मिक नगरीशिवरीनारायणमें हर बरस निकलने वालीरथयात्राकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक है और दशकों से रथयात्रा की परिपाटी चलती रही है। शिवरीनारायण में निकलने वाली रथयात्रा की महिमा इसलिए और बढ़ जाती है, क्योंकि पुरी ( उड़ीसा ) में विराजे भगवान जगन्नाथ जी का मूल स्थानशिवरीनारायणको माना जाता है। यही कारण है कि रथयात्रा के दिन शिवरीनारायण में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है तथा क्षेत्र के सैकड़ों के लोग यहां दर्शनार्थ पहुंचते हैं।
दरअसल, शिवरीनारायण, रायपुर जिले से लगे होने तथा जांजगीर-चांपा जिले के अंतिम छोर में बसे होने के कारण आसपास गांवों के लोगों का हुजूम रथयात्रा देखने उमड़ता है। जिस तरह पुरी में मनाई जाने वाली रथयात्रा की प्रसिद्धि देश-दुनिया में है, उसी तरह शिवरीनारायण में मनने वाली रथयात्रा की अपनी पहचान छत्तीसगढ़ में कायम है। इससे इस बात से भी समझा जा सकता है कि दशकों से चली आ रही इस परंपरा के प्रति लोगों में असीम श्रद्धा है और वे पूरी तन्मयता के साथ भगवान जगन्नाथ के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। भगवान के एक दर्शन पाने वे हर पल लालायित नजर आते हैं और जब रथयात्रा निकलती है, उस दौरान भगवान के दर्शन करने तथा प्रसाद पाने के लिए सैकड़ों की संख्या में भीड़ जुटती है।
इस बारे में शिवरीनारायण के मठाधीश राजेश्री महंत रामसुंदर दास जी का कहना है कि प्रदेश में तो शिवरीनारायण से निकलने वाली रथयात्रा की पहचान दशकों से कायम है। साथ ही कई अन्य राज्यों से भी साधु-संत पहुंचते हैं। रथयात्रा के इतर शिवरीनारायण में श्रद्धालु दर्शनार्थ पहुंचते रहते हैं, मगर रथयात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन का फल श्रद्धालुओं को उतना ही मिलता है, जितना इस दिन पुरी के भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन से पुण्य मिलता है, क्योंकि शिवरीनारायण, भगवान जगन्नाथ जी का मूल स्थान है। उन्होंने बताया कि माघी पूर्णिमा के समय शिवरीनारायण में मेला लगता है, जो छग का सबसे बड़ा मेला है। इसमें उड़ीसा, झारखंड, मध्यप्रदेश समेत अन्य राज्यों के लोग आते हैं। माघी पूर्णिमा के दिन त्रिवेणी संगम में शाही स्नान साधु-संत करते हैं और लोगों की भी भीड़ उमड़ती है, क्योंकि भगवान जगन्नाथ, एक दिन के लिए शिवरीनारायण मंदिर में विराजते हैं।
उल्लेखनीय है कि शिवरीनारायण की अपनी एक सांस्कृतिक व धार्मिक विरासत है और इसीलिए छग सरकार ने इसे ‘धार्मिक नगरी’ घोषिेत किया है। साथ ही छग में शिवरीनारायण को गुप्त प्रयाग के रूप में जाना जाता है और यह भी किवदंति है कि भगवान राम, इसी रास्ते से होकर गए थे, जिसके प्रमाण यहां के जानकार आज भी बताते हैं। जैसा रामायण में भगवान राम का ‘वरगमन’ का उल्लेख है, कुछ उसी तरह से शिवरीनारायण के साथ धार्मिक मान्यता भी जुड़ी हुई हैं। यह भी कहा जाता है कि भगवान राम को वनगमन के समय यहीं माता शबरी ने बेर खिलाए थे, इसके कारण इस नगरी का नाम ‘शबरीनारायण’ पड़ा। हालांकि, बाद में इसे शिवरीनारायण के तौर पर पुकारा जाने लगा।
शिवरीनाराण में ऐसी कई स्थितियां हैं, जिससे पता चलता है कि भगवान राम ने नाव पर सवार होकर नदी पार की थी। कालांतर में यही नदी, महानदी अर्थात चित्रोत्पला नदी कहलायी। नदी के उस पार एक बरगद का पेड़ है, जहां नाव जाकर रूकी थी, ऐसा भी जानकार बताते हैं। इस तरह ऐसे कई प्रमाण जानकार बताते हैं, जिसके कारण इस धार्मिक नगरी के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ती जा रही है।
शिवरीनारायण में तीन नदियों का त्रिवेणी संगम है, जहां महानदी ( चित्रोत्पला ), जोंक व शिवनाथ नदी एक जगह पर आकर मिली हैं। इसके कारण भी शिवरीनारायण की महत्ता उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद के सामान है, क्योंकि वहां तर्पण के बाद पुण्य आत्मा जितनी शांति मिलती है, कुछ ऐसी ही मान्यता त्रिवेणी संगम में ‘तर्पण’ का है। इसी के चलते छग ही नहीं, वरन अन्य प्रदेशों से भी लोगों का तर्पण के लिए आना होता है।
बहरहाल, शिवरीनारायण की धार्मिक मान्यता बढ़ती जा रही है। साथ ही प्रसिद्धि भी, क्योंकि पर्यटन सिटी बनने के बाद यह देश के नक्शे पर आ गया है। भविष्य में सरकार इस नगरी के विकास पर ध्यान दे तो निश्चित ही आने वाले दिनों में दर्शनार्थियों का रेला उमड़ेगा।


छग की काशी ‘खरौद’ की भी महत्ता
खरौद को छत्तीसगढ़ की काशी के नाम भी जाना जाता है। यहां भगवान लक्ष्मणेश्वर भगवान विराजे हैं। भगवान लक्ष्मणेश्वर की महत्ता इसलिए है कि यहां लक्षलिंग है, जिसमें एक लाख छिद्र हैं और यहां सच्चे मन से जो भी मन्नतें मांगी जाती हैं, वह पूरी होती हैं। खरौद में महाशिवरात्रि पर श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है, क्योंकि इस दिन हजारों की संख्या में लोग, दर्शन के लिए पहुंचते हैं। महाशिवरात्रि के दिन भगवान लक्ष्मणेश्वर के दर्शन करने से शुभ फल प्राप्त होता है। इसके अलावा सावन माह तथा तेरस के समय भी भगवान के दर्शन के लिए भक्तों की कतार लगी रहती है।

शुक्रवार, 24 जून 2011

‘राष्ट्रपति को भा गई छत्तीसगढ़ की आत्मीयता’

छत्तीसगढ़ नेधान का कटोराके तौर पर देश-दुनिया में पहचान रखी है। प्रदेश की प्राचीन संस्कृति लोककला यहां की प्रमुख विरासत है। छग में दूसरे राज्यों तथा अन्य देशों से जब भी कोई पहुंचते हैं तो वे सहसा ही यहां के लोगों की आत्मीयता से अभिभूत हो जाते हैं। वनांचल क्षेत्रों की आदिवासी संस्कृति परंपरा जानकर हर कोई वाह-वाह किए बगैर नहीं रहता और यहां की यादों को अपनी संस्मरण में उतार लेते हैं। छत्तीसगढ़ के लिए अक्सर कहा जाता है - ‘छत्तीसगढ़िया-सबसे बढ़िया यह उक्ति आज की बनाई हुई नहीं है, बल्कि बरसों से ऐसा ही छत्तीसगढ़ियों के लिए प्रचलित है। प्रदेश के रहवासियों को इसलिए ऐसा कहा जाता है, क्योंकि वे सहज, सरल होने के साथ-साथ आत्मीयता के गुणों से लबरेज माने जाते हैं। इस बात को जब भी अवसर मिलता है, तब-तब छत्तीसगढ़ियों ने साबित भी किया है। छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा तो मिला हुआ है ही, साथ ही यह राज्य मेंगुरतुर गोठके तौर पर भी जानी जाती है। छत्तीसगढ़ी में इतनी मिठास है कि दूसरे राज्यों से आकर यहां रहने वाले लोग भी धीरे-धीरे इस भाषा को बोलचाल में शामिल कर लेते हैं।

इधर दो दिनी छत्तीसगढ़ के दौरे पर राजधानी रायपुर पहुंची, राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल भी प्रदेश की अवाम की आत्मीयता से गदगद नजर आईं। वैसे राष्ट्रपति श्रीमती पाटिल, दूसरी बार छत्तीसगढ़ के प्रवास पर आई हैं। लिहाजा, संबोधन के दौरान उनका छग तथा यहां के रहवासियों से सीधा जुड़ाव देखा गया। राजधानी की विधानसभा में बने सेंट्रल-हॉल का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा कि छग में वे दूसरी बार आई हैं और जिस तरह यहां की जनता में आत्मीयता है, वह काबिले तारीफ हैं। साथ ही उन्होंने छग के विकास के मामले में बढ़ते सोपान के लिए प्रदेश की जनता को बधाई दी। उन्होंने नक्सलियों को हिंसा व बंदूक की लड़ाई छोड़, मुख्यधारा में लौटने का आह्वान करते हुए, अपराध व हिंसा को समाज, राज्य तथा देश के लिए खतरनाक बताया। महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती पाटिल ने कहा कि छग में लिंगानुपात, अन्य दूसरे राज्यों की अपेक्षा बेहतर है, उन्होंने बढ़ते भ्रूणहत्या को घोर अपराध करार दिया। उन्होंने कहा कि महिलाओं के उत्थान की दिशा में हर स्तर पर प्रयास होना चाहिए, इसके बगैर सामाजिक विकास संभव नहीं है। जब महिलाएं आगे बढ़ेंगी तो निश्चित ही प्रदेश व देश प्रगति करेगा और समाज विकसित होगा।
इस अवसर पर महामहिम राज्यपाल श्री शेखर दत्त, मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, विधानसभा अध्यक्ष धरम लाल कौशिक, नेता प्रतिपक्ष रवीन्द्र चौबे समेत विधानसभा के सदस्यगण व अफसर उपस्थित थे।



न कांग्रेस की जीत, न भाजपा की
अपने प्रवास के दूसरे दिन अर्थात् 25 जून को महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती पाटिल, रायपुर नगर निगम की नई बिल्डिंग को लोकार्पित करेंगी। इस तरह बिल्डिंग के लोकार्पण के बाद यह विवाद भी थम जाएगा कि आखिर भवन को किसके हाथों लोकार्पित कराया जाए ? दरअसल, नगर निगम में कांग्रेस की महापौर श्रीमती किरणमयी नायक हैं और प्रदेश में भाजपा की सरकार तथा सभापति भाजपा के हैं, ऐसे में पिछले कुछ महीनों से यह विवाद छाया रहा। कांग्रेस के लोग चाहते थे कि इस भवन का लोकार्पण, यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी या फिर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह करें, दूसरी तरफ भाजपा के लोग यह चाहते थे कि भवन का लोकार्पण राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी या फिर लालकृष्ण आडवाणी करें। हालांकि, इस विवाद का अंत बेहतर तरीके से हो रहा है, क्योंकि न तो कांग्रेस की जिद पूरी हुई और न ही, भाजपा की। यह कहना सही होगा कि निगम की नई बिल्डिंग का लोकार्पण महामहिम राष्ट्रपति के हाथों होना भी एक सुनहरा पल होगा, क्योंकि इतनी बड़ी उम्मीद किसी को न थीं। आखिर कहा भी जाता है- जो होता है, अच्छे के लिए होता है।

मंगलवार, 14 जून 2011

यहां होता है तालाब का विवाह !

- 80 बरस बाद दोहराई गई परंपरा
- केरा गांव के लोगों का अनूठा कार्य
- तालाबों के अस्तित्व को बचाने की मुहिम
- जल संरक्षण की दिशा में ग्रामीणों का अहम योगदान
- ‘जल ही जीवन है’, ‘जल है तो कल है’ का संदेश

भारतीय संस्कृति में संस्कार का अपना एक अलग ही स्थान है। सोलह संस्कारों में से एक होता है, विवाह संस्कार। देश-दुनिया में चाहे कोई भी वर्ग या समाज हो, हर किसी के अपने विवाह के तरीके होते हैं। मानव जीवन में वंश वृद्धि के लिए भी विवाह का महत्व सदियों से कायम है। इसके लिए समाज में एक दस्तूर भी तय किया गया है। ऐसे में आपको यह बताया जाए कि तालाब का भी विवाह होता है तो निश्चित ही आप चौंकेंगे ! मगर ऐसी विवाह की परंपरा को दोहराई गई है, छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के केरा गांव में, जहां 80 बरसों बाद एक बार फिर तालाब का विवाह कराया गया। सभी रीति-रिवाजों के साथ ग्रामीणों ने दो दिनों तक यहां राजापारा नाम के तालाब के विवाह संस्कार को पूर्ण कराया और इस तरह तालाबों के संरक्षण के साथ, उसके अस्तित्व को बचाने की गांव वालों की मुहिम जरूर रंग लाएगी।

दरअसल, महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना के तहत करीब 5 लाख रूपये खर्च कर केरा गांव के ‘राजापारा तालाब’ का गहरीकरण कराया गया और जल संरक्षण की दिशा में ग्रामीणों ने अहम योगदान देते हुए, एक पुरानी परंपरा के माध्यम से घटते जल स्तर को बचाने के लिए अपनी पूरी सहभागिता निभाई। इस अनूठे विवाह के बारे में जानकर कोई भी एकबारगी विश्वास नहीं कर रहा है और यही कारण है कि केरा में संपन्न हुई इस अनूठी परंपरा, समाज के लिए एक मिसाल भी साबित हो रही हैं। ‘जल ही जीवन है’, ‘जल है तो कल है’, इन सूत्र वाक्यों को जीवन में उतारते हुए हमें ‘जल’ को बचाने के लिए हर स्तर पर कोशिश करनी चाहिए। इस लिहाज से निश्चित ही केरा गांव के ग्रामीणों ने अनुकरणीय कार्य किया है।

ग्राम पंचायत केरा ( नवागढ़) के सरपंच लोकेश शुक्ला ने बताया कि आठ दशक पहले गांव के ‘बर तालाब’ में इस तरह विवाह का आयोजन किया गया था। इसके बाद यह परंपरा अभी निभाई गई है। उनका कहना है कि जब भी गांव में शुभ कार्य होता है तो ग्रामीणों द्वारा तालाब विवाह की परंपरा का निर्वहन किया जाता है। यह तय नहीं है कि कब विवाह संस्कार का आयोजन होगा और इसके लिए एक ही तालाब तय नहीं रहता। पूर्वजों द्वारा ऐसी परिपाटी की शुरूआत की गई थी, उस परंपरा को अरसे बाद निभाने का मौका नई पीढ़ी को अब मिला है।

सरंपच श्री शुक्ला ने बताया कि जब उन्हें तालाब के विवाह कराने संबंधी जानकारी मिली तो वे अभिभूत हो गए और इसके लिए ग्रामीणों को हर संभव सहयोग का भरोसा दिलाया। 11 जून को कलश यात्रा के साथ विवाह संस्कार की प्रक्रिया शुरू हुई। इस दौरान कलश यात्रा में बड़ी संख्या में कन्याएं, युवती व महिलाएं समेत ग्रामीण शामिल हुए। कलश कलश गांव की गलियों से घूमती हुई चंडी मां मंदिर होते हुए राजापारा तालाब पहुंची। यहां दो दिनों तक विवाह कार्यक्रम पूरे रीति-रिवाजों के साथ संपन्न कराया गया।

उन्होंने बताया कि गांव में तालाब विवाह की पुरानी परिपाटी तो है ही, साथ ही आज के दौर में घटते जल स्तर के लिहाज से भी यह इसलिए काफी महत्वपूर्ण भी है कि इस बार ‘राजापारा तालाब’ का मनरेगा के तहत गहरीकरण कराया गया है। इससे जल संवर्धन की दिशा में भी बेहतर कार्य हो रहा है। दूसरी ओर ग्रामीणों में यह भी मान्यता है कि तालाब के विवाह से गांव में जलजनित बीमारी नहीं फैलती और किसी तरह दैवीय प्रकोप का संकट नहीं होता। लोगों में इसलिए भी ‘तालाब विवाह’ के प्रति लगाव है कि 100 कन्याओं के विवाह की अपेक्षा तालाब विवाह में सहभागिता से उतने पुण्य की प्राप्ति होती है। इन्हीं सब कारण से लोगों का रूझान बढ़ा और 80 बरस बाद एक बार फिर गांव में तालाब विवाह की परंपरा दुहराई जा सकी।

वर बने ‘वरूणदेव’, वधु बनी ‘वरूणीदेवी’
केरा गांव में संपन्न हुए तालाब विवाह में वर के रूप में भगवान वरूणदेव को विराजित किया गया, वहीं वधु के रूप में वरूणीदेवी को पूजा गया। ग्रामीणों ने पूरे उत्साह से इनका विवाह रचाया और दो दिन तक चले विवाह कार्यक्रम में हर वह रस्म पूरी की गई, जो किसी व्यक्ति की शादी में निभाई जाती है। तालाब विवाह में लोगों का उत्साह देखते बना और उनका हुजूम उमड़ पड़ा। जिन्होंने इस अनूठे विवाह के बारे में जाना, वह सहसा ही खींचे चला आया।


विवाह
की साक्षी बनीं सांसद
केरा की ‘तालाब विवाह’ परंपरा की साक्षी जांजगीर-चांपा की सांसद श्रीमती कमला पाटले भी बनीं। वे यहां ग्रामीणों के उत्साह बढ़ाने विशेष तौर पर उपस्थित रहीं। इस दौरान उन्होंने कहा कि ग्रामीणों का प्रयास काबिले तारीफ है, क्योंकि एक तरफ दिनों-दिन जल स्तर घट रहा है तथा पुराने तालाबों का अस्तित्व मिट रहा है। ऐसे में तालाब संरक्षण कार्य के दृष्टिकोण से लुप्त होती परंपरा भी समाज को संदेश देती है। इस शुभ आयोजन में पहुंचना ही अपने आप में बड़ी बात है, क्योंकि जल के बिना कोई भी जीव-जंतु जीवित नहीं रह सकता।

शनिवार, 26 मार्च 2011

शिव की बारात में उमड़े ‘नागा साधु’

पीथमपुर में रंग पंचमी से शुरू होने वाले मेले में भीड़ उमड़ रही है। मेले के पहले दिन भगवान शिव की बारात निकली, जिसमें देश के अनेक अखाड़ों से आए नागा साधु बड़ी संख्या में शामिल हुए और शौर्य प्रदर्शन किए। बाबा कलेश्वर नाथ धाम में दर्शन के लिए भक्त दूर-दूर से पहुंचते हैं। मेले की रौनकता में पहले से जरूर कमी आई है, मगर भगवान कलेश्वरनाथ के प्रति असीम श्रद्धा का ही परिणाम है कि अब भी मेले के माध्यम से एक प्राचीन संस्कृति की पहचान कायम है।

जिला मुख्यालय जांजगीर से 15 किमी दूर ग्राम पीथमपुर में बरसों से मेला लगता आ रहा है। बाबा कलेश्वरनाथ मंदिर में पूजा-पाठ के बाद चांदी की पालकी में भगवान शिव की बारात निकलती है और इस तरह मेला शुरू होता है। रंग-पंचमी के ही दिन पीथमपुर में मेला लगता है और यह सात दिन चलता है। पहले मेला तीन दिन का हुआ करता था। बदलते समय के साथ मेले के स्वरूप में काफी परिवर्तन आया है। मेले का खास आकर्षण देश के अनेक प्रदेशों के अखाड़ों से आए नागा साधु होते हैं। जिनके आशीर्वाद के लिए भी दूर-दूर से भक्त पहुंचते हैं।

पीथमपुर में लगने वाला मेला अंचल का अंतिम मेला होने के कारण लोगों का उत्साह देखने लायक रहता है और आसपास गांवों के अलावा दूसरे जिलों से भी लोगों का हुजूम उमड़ता है। मेले में मनोरंजन के साधन की भी व्यवस्था होती है, इसके चलते शाम को अधिक संख्या में लोगों का जमावड़ा होता है। इस वर्ष पीथमपुर मेले में इलाहाबाद, द्वारिकानाथ, बद्रीनाथ, गुजरात समेत अन्य स्थानों से पहुंचे हैं।


मंदिर के इतिहास पर एक नजर

बाबा कलेश्वरनाथ मंदिर परिसर की दीवार में लगे शिलालेख के मुताबिक मंदिर का निर्माण कार्तिक सुदी 2, संवत 1755 को किया गया था। बाद में मंदिर के जीर्ण-शीर्ण होने के कारण चांपा के जमींदारों ने निर्माण कराया। भगवान शिवजी की बारात की परिपाटी 1930 से शुरू होने की जानकारी मिलती है। इसके बाद से लगातर रंग पंचमी के दिन बारात की परंपरा कायम है और दूर-दूर से आकर नागा साधु शामिल होते हैं। पीथमपुर के कलेश्वरनाथ मंदिर में स्वयंभू शिवलिंग है, इसे सपने में देखने के बाद एक परिवार के व्यक्ति ने खोदाई करवाकर निकलवाया था और फिर मंदिर का निर्माण कर प्रतिमा की स्थापना की गई। इस तरह पीथमपुर में शिव की बारात के साथ मेले का सिलसिला अब तक चल रहा है।