कहते हैं कि जब कोई बीमारी, शरीर को जकड़ती है तो फिर जीवन अंधकारमय हो जाता है और जीवन बोझ लगने लगता है, मगर इनसे परे बीमारी के बाद भी जिंदादिली दिखता है, चांपा इलाके के सोंठी आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों में। एक ओर जहां कुष्ठ पीड़ितों के समक्ष भिक्षावृत्ति के सिवाय, और कोई रास्ता नहीं रहता। ऐसी स्थिति से जूझते हुए आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों ने नई मिसाल पेष की और यह भी बताया कि कोई भी परिस्थिति आ जाए, लेकिन स्वाभिमान को जिंदा कैसे रखा जाए। यहां कुष्ठ पीड़ितों का मनोबल बढ़ाने में आश्रम प्रबंधन के योगदान की जितनी तारीफ की जाए, कम ही होगी।
जिला मुख्यालय जांजगीर से 15 किमी दूर सोंठी गांव में स्थित है कुष्ठ आश्रम। इस कुष्ठ आश्रम में 150 से अधिक कुष्ठ पीड़ित रहते हैं। इनमें से अधिकतर की उम्र 60 के पार जा पहुंची है, फिर भी इन कुष्ठ पीड़ितों में अपने कर्म के प्रति कर्मठता देखते ही बनती है। इनमें से अधिकांष कुष्ठ पीड़ित, छत्तीसगढ़ के ही हैं। कइयों को आश्रम में रहते 25 से 30 साल हो गए हैं। आश्रम में रहने वाले कुष्ठ पीड़ितों के बीच आपस में इतना अपनत्व है कि वे एक-दूसरे के सहयोग के लिए हमेषा आतुर नजर आते हैं। भाई-बंधुत्व की भावना आश्रम में साफ नजर आती है, जिसके कारण कुष्ठ पीड़ितों का मन, इस आश्रम में रमा हुआ है।
खास बात यह है कि आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों ने स्वाभिमान की मिसाल पेष की है। दरअसल, कुष्ठ पीड़ितों में चाहे वह पुरूष हो या महिला, सभी कुछ न कुछ कार्य जरूर करते हैं और इस तरह वे बगैर कोई कार्य किए, अन्न ग्रहण नहीं करते। हर सुबह कुष्ठ पीड़ितों में यही परिपाटी नजर आती है और यह सिलसिला कोई दो-चार साल पुरानी नहीं है, बल्कि जब से आश्रम शुरू हुआ है, तब से कुष्ठ पीड़ित अपनी क्षमता के अनुरूप कार्य करते आ रहे हैं।
आश्रम में कुछ महिला कुष्ठ पीड़ित, जहां चावल में कंकड़ बिनने का काम करती हैं तो कुछ जैविक खाद बनाने में योगदान देती हैं। साथ ही कई महिलाएं, आश्रम की गौषाला में काम करती हैं। इसके साथ ही आश्रम में कोई चाक बनाता है तो कोई दरी। महत्वपूर्ण बात यह है कि रसोई की जिम्मेदारी भी कुष्ठ पीड़ित महिलाएं संभालती हैं। यह कुष्ठ पीड़ितों की रोज की दिनचर्या में शामिल है और कुछ न कुछ काम करने के बाद, कुष्ठ पीड़ितों के चेहरों में एक आत्मसंतोष भी दिखता है।
कुष्ठ पीड़ित मानते हैं कि रोजाना कोई न कोई काम करने से शरीर को फायदा है ही, साथ ही आश्रम का काम भी हो जाता है। साथ ही आश्रम के विकास में उनका योगदान भी शामिल हो जाता है। आश्रम की व्यवस्था से सभी कुष्ठ पीड़ित खुष नजर आते हैं और वे आश्रम के सुखद माहौल से काफी आषान्वित नजर आते हैं।
सोंठी कुष्ठ आश्रम के सुधीर जी कहते हैं कि आश्रम में परिवार का माहौल है। ऐसी परंपरा की शुरूआत संस्था के संस्थापक स्व. सदाषिव गोविंद कात्रे जी ने की थी। परिवार की भावना होने के कारण सभी को लगता है कि यह मेरा है और उसी पारिवारिक भावना के कारण सभी लोग, अपना कुछ न कुछ योगदान देना चाहते हैं। सभी के लिए व्यवस्थाएं एक जैसी हैं। जो आश्रम में रह रहे हैं, वही लोग यहां की व्यवस्थाओं को संभाल रहे हैं।
निष्चित ही, सोंठी आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों ने समाज के सामने अपने स्वाभिमान को जिस तरह जीवंत बना रखा है, वह समाज की सबसे बड़ी बुराई भिक्षावृत्ति पर तमाचा है। कई कुष्ठ पीड़ित, धार्मिक जगहों और फुटपाथों पर भिक्षावृत्ति को अपनी किस्मत समझते हैं, उन्हें सोंठी आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों से सीखने की जरूरत है। साथ ही समाज के लोगों को भी कुष्ठ पीड़ितों के मनोबल को बढ़ाने के लिए आगे आना होगा, तब कहीं जाकर कुष्ठ रोग के प्रति, समाज में व्याप्त संकीर्ण मानसिकता भी खत्म होगी।
समाज की मुख्यधारा से जुड़ने लगे कुष्ठ पीड़ित
समाज में कुष्ठ रोगियों के लिए मानसिकता अच्छी नहीं रही है। षिक्षा और जागरूकता के बाद अब कुष्ठ पीड़ितों के प्रति धारणा बदली है। यही वजह है कि कुष्ठ पीड़ित भी अब समाज की मुख्यधारा से जुड़ने लगे हैं। कुष्ठ पीड़ितों के उत्थान में सोंठी के आश्रम प्रबंधन ने बड़ी भूमिका निभाई है, जिसका परिणाम अब सबके सामने हैं। जिन कुष्ठ पीड़ितों को लाचार समझा जाता था, वे आश्रम में ऐसे-ऐसे कार्य करते हैं, जिसे देख और सुनकर सहसा विष्वास नहीं होता। कात्रे जी ने जो बुनियाद डाली थी, उसे गणेष दामोदर बापट ने मजबूत करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है। जिसके कारण आज कुष्ठ पीड़ितों का आत्मबल और स्वाभिमान बढ़ा नजर आता है।
कुष्ठ रोग को ‘साध्य’ मानकर अक्सर लोग, कुष्ठ रोगियों से दूरी बनाते थे, लेकिन षिक्षा के प्रसार और जागरूकता ने लोगों की सोच में काफी बदलाव किया है। हालांकि, कुष्ठ पीड़ितों को समाज में वह सम्मान नहीं मिल रहा है, जितना उन्हें मिलना चाहिए। बावजूद, कुष्ठ रोगियों ने इन स्थितियों से मुकाबला करते हुए अपने जीवन के लिए नया रास्ता तैयार किया है। कुष्ठ पीड़ितों ने ठाना है कि वे किसी पर बोझ नहीं बनेंगे और यही वजह है कि सोंठी आश्रम के कुष्ठ पीड़ित, अनेक कार्यों में पारंगत हो गए हैं।
सोंठी आश्रम में रहने वाले कुष्ठ पीड़ित, दरी से लेकर चाक और जैविक खाद बनाते हैं। इसके अलावा गौषाला की देखरेख के अलावा हॉलर मिल भी आश्रम में रहने वाले कुष्ठ रोगी ही चलाते हैं। साथ ही आश्रम के लोगों के कपड़ों की सिलाई करने वाला व्यक्ति भी कुष्ठ पीड़ित ही है, इन कुष्ठ रोगियों के जज्बे के आगे सामान्य लोगों के भी पसीने छूट जाए।
आश्रम में 20 साल से रह रहे जगदीष श्रीवास बताते हैं कि वे दरी बनाने का काम करते आ रहे हैं। आश्रम का माहौल, घर जैसा ही है। यहां तक कि घर से भी अच्छा है। आश्रम में पूरा सम्मान मिलता है।
इसी तरह आश्रम में चाक बनाने वाले दयाराम यादव कहते हैं कि सभी कुष्ठ पीड़ित अपने-अपने स्तर पर काम करते हैं। हम लोग चाक बनाते हैं। बारिष के बाद चाक बनाना बंद हो जाएगा। इसके बाद सीमेंट की बोरी के धागे से रस्सी बनाने का काम करते हैं।
टेलरिंग का काम करने वाले विनोद नायक को आश्रम, घर के समान ही लगता है। सभी लोग परिवार के सदस्य लगते हैं और सबसे पारिवारिक रिष्ता हो गया है। विनोद बताते हैं कि आश्रम में काम करने से शरीर में स्फूर्ति रहती है। इलाज तो निरंतर जारी रहता है।
आश्रम में रहने वाली कुष्ठ पीड़ित महिलाएं भी अपना योगदान देने में कहीं भी पीछे नहीं है। कुछ महिलाएं जहां चावल बिनती हैं या फिर गौषाला से गोबर उठाती हैं, वहीं एक महिला हैं, गणेषी बाई, जो आश्रम में बनने वाली जैविक खाद की जिम्मेदारी संभालती हैं। जैविक खाद बनाने के लिए वह रोजाना कुछ न कुछ कार्य करती हैं और उसके साथ 2 अन्य महिलाएं भी काम करती हैं। इस तरह गोबर और गीले कचरे से खाद बनाई जाती है।
सोंठी कुष्ठ आश्रम के सुधीर जी कहते हैं कि सभी अपनी क्षमता के हिसाब से कार्य करते हैं, आश्रम में कोई बाध्य नहीं है। कुछ नहीं कर पाते, वह भी आश्रम परिसर की साफ-सफाई कर देते हैं। कई कुष्ठ पीड़ित हैं, जो भगवान की भक्ति में रमे रहते हैं।
सोंठी आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों ने तमाम झंझावतों और सामाजिक दूरियों के बाद भी अपने स्वाभिमान का जो दमखम दिखाया है, वह निष्चित ही बड़ी बात है। जिन कुष्ठ पीड़ितों को समाज द्वारा आत्मबल देना चाहिए, वही समाज कहीं न कहीं, उनसे दूर नजर आता है, फिर भी कुष्ठ पीड़ितों ने इन बातों को भुलकर सामाजिक समरसता को बढ़ावा दिया है। साथ ही खुद की क्षमता का पूरा उपयोग करते हुए आश्रम को भी आगे बढ़ाने में अहम योगदान दिया है।
स्व. सदाषिव गोविंद कात्रे जी का अहम योगदान
चांपा इलाके के सोंठी गांव में भारतीय कुष्ठ निवारक संघ की स्थापना करने वाले सदाषिव गोविंद कात्रे, खुद भी कुष्ठ से पीड़ित थे। यही वजह रही कि उन्होंने कुष्ठ पीड़ितों के दर्द को समझा और 1962 में कुष्ठ आश्रम की शुरूआत की। छह दषक पहले कुष्ठ पीड़ितों को दर्द को हरने को जो कोषिषें की गई थीं, निष्चित ही काफी हद तक कामयाबी मिली है। कुष्ठ पीड़ितों के लिए कात्रे जी ने अपना जीवन समर्पित कर दिया, जिन्हें आज भी आश्रम में रहने वाले कुष्ठ पीड़ित याद करते हैं। वर्तमान में गणेष दामोदर बापट की देखरेख में आश्रम का संचालन हो रहा है।
छह दषक पहले कुष्ठ पीड़ितों को हेय की दृष्टि से देखा जाता था और कुष्ठ को ‘साध्य’ रोग मानकर कुष्ठ पीड़ितों से हर कोई दूरियां बनाता था। 1960 में जब कात्रे जी चांपा आए तो कुष्ठ पीड़ितों की दुर्दषा देखकर उन्होंने भारतीय कुष्ठ निवारक संघ की स्थापना की और कुष्ठ पीड़ितों की सेवा में लग गए। शुरूआत में 2-3 कुष्ठ पीड़ित ही कात्रे जी के साथ रहते थे। इस दौरान कात्रे जी स्वयं साइकिल से गांव-गांव जाते और लोगों से एक मुट्ठी चावल सहयोग मांगते। साथ ही कुष्ठ के प्रति लोगों के भ्रम को भी दूर करने की कोषिष करते। इसी बीच कात्रे जी के परिश्रम और दृढ़ इच्छा शक्ति को देखकर एक समाजसेवी ने आश्रम निर्माण के लिए एक एकड़ जमीन, झोपड़ी और कुंआ दान किया। इस तरह आश्रम का संचालन शुरू हुआ और फिर आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों के सहयोग के लिए बहुत से हाथ आगे आए। खास बात यह है कि कात्रे जी गांव-गांव, जब जाते तो लोग उनकी सराहना करते, लेकिन कुछ लोग सामाजिक बेड़ियों के चलते सहयोग नहीं कर पाते थे। धीरे-धीरे ऐसे लोग भी कुष्ठ पीड़ितों की मदद के लिए सामने आए। जिसका परिणाम है कि कुष्ठ पीड़ितों के प्रति जहां लोगों की सोच में काफी बदलाव आया है और साथ ही चिकित्सा ज्ञान बढ़ने से कुष्ठ रोग ‘असाध्य’ होने की भी जानकारी सामने आई।
उधर आश्रम में जैसे-जैसे कुष्ठ पीड़ितों की संख्या बढ़ती गई, वैसे-वैसे आश्रम में भी विकास के काम होते गए। इसी वक्त कुष्ठ पीडितों ने ही आश्रम के किनारे एक तालाब की खोदाई की, जिसे आज ‘माधव सागर’ के नाम से जाना जाता है। दूसरी ओर आश्रम के संस्थापक रहे स्व. सदाषिव गोविंद कात्रे के संस्मरण में समाधि स्थल का भी निर्माण किया गया है। समाजसेवा के लिए दिए गए कात्रे जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। वर्तमान में गणेष दामोदर बापट पर आश्रम के संचालन की जिम्मेदारी है। उन्होंने भी कुष्ठ पीड़ितों के हितों के लिए काम करने में ता-उम्र गुजार दी। उम्र के अंतिम पड़ाव के बाद भी बापट जी आज भी कुष्ठ पीड़ितों की सेवा में लगे हुए हैं।
सोंठी आश्रम के सुधीर कहते हैं कि कात्रे जी स्वयं कुष्ठ से पीड़ित थे, इसलिए वे कुष्ठ पीड़ितों के दर्द को जानते थे। कुष्ठ पीड़ितों के लिए पेट भरने के लिए ‘भिक्षावृत्ति’ एक ही रास्ता था। कात्रे जी चाहते थे कि कुष्ठ रोगी भिक्षावृत्ति से दूर हो और स्वाभिमान से जीए।
सोंठी आश्रम के सुधीर जी मानते हैं कि कुष्ठों के उत्थान और आश्रम को अग्रसर करने में समाज का बड़ा योगदान है। प्रारंभ में ही समाज के लोगों ने कात्रे जी को संबल दिया। कात्रे जी को एक मुट्ठी चावल के साथ हर महीने 1 रूपये सहयोग देते थे। समाज के बल पर ही आश्रम ने यह रूप हासिल किया है। शासन से भी मदद मिलती है।
सोंठी के भारतीय कुष्ठ निवारक संघ द्वारा कुष्ठ पीड़ितों की सेवा के अलावा सामाजिक दायित्व का भी निर्वहन किया जाता है। आश्रम परिसर में कई साल नेत्र षिविर लगाए गए, जहां हजारों लोगों को लाभ हुआ है। इसके साथ ही षिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय कुष्ठ निवारक संघ महती भूमिका निभा रहा है। आश्रम के पिछले हिस्से में सुषील विद्या मंदिर संचालित है, जहां कक्षा 8 वीं तक के बच्चे पढ़ाई करते हैं। अहम बात यह है कि आश्रम के अंतर्गत सुषील बालक छात्रावास भी है, जहां छग के अलावा मध्यप्रदेष, पष्चिम बंगाल और झारखंड के बच्चे भी पढ़ते हैं। बालक छात्रावास में 74 बालक हैं, जिनमें 40 बच्चे ऐसे हैं, जो कुष्ठ पीड़ितों के परिवार के हैं। अन्य बच्चे गरीब परिवार के हैं। आश्रम द्वारा 1986 में सुषील बालक छात्रावास को शुरू किया गया था और इस संस्थान को कुष्ठ पीड़ितों के परिवार के उत्थान के लिए शुरू किया गया था, जो आज भी अनवरत जारी है।
कुष्ठ पीड़ितों के स्वास्थ्य की भी भारतीय कुष्ठ निवारक संघ को शुरू से ही चिंता रही है, जिसके कारण आश्रम परिसर में ही एक हॉस्पिटल खोला गया है, जहां हर दिन कुष्ठ पीड़ितों का इलाज होता है। जिन कुष्ठ पीड़ितों की समस्या बड़ी होती है, उनके इलाज के लिए बीच-बीच में दूसरे शहरों से भी विषेषज्ञ डॉक्टर पहुंचते हैं। इस तरह आश्रम में कुष्ठ पीड़ितों के जीवन को संवारने के लिए हर स्तर पर प्रयास हो रहा है, जिसकी बानगी आश्रम में पहुंचते ही देखने को मिलती है।
जिला मुख्यालय जांजगीर से 15 किमी दूर सोंठी गांव में स्थित है कुष्ठ आश्रम। इस कुष्ठ आश्रम में 150 से अधिक कुष्ठ पीड़ित रहते हैं। इनमें से अधिकतर की उम्र 60 के पार जा पहुंची है, फिर भी इन कुष्ठ पीड़ितों में अपने कर्म के प्रति कर्मठता देखते ही बनती है। इनमें से अधिकांष कुष्ठ पीड़ित, छत्तीसगढ़ के ही हैं। कइयों को आश्रम में रहते 25 से 30 साल हो गए हैं। आश्रम में रहने वाले कुष्ठ पीड़ितों के बीच आपस में इतना अपनत्व है कि वे एक-दूसरे के सहयोग के लिए हमेषा आतुर नजर आते हैं। भाई-बंधुत्व की भावना आश्रम में साफ नजर आती है, जिसके कारण कुष्ठ पीड़ितों का मन, इस आश्रम में रमा हुआ है।
खास बात यह है कि आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों ने स्वाभिमान की मिसाल पेष की है। दरअसल, कुष्ठ पीड़ितों में चाहे वह पुरूष हो या महिला, सभी कुछ न कुछ कार्य जरूर करते हैं और इस तरह वे बगैर कोई कार्य किए, अन्न ग्रहण नहीं करते। हर सुबह कुष्ठ पीड़ितों में यही परिपाटी नजर आती है और यह सिलसिला कोई दो-चार साल पुरानी नहीं है, बल्कि जब से आश्रम शुरू हुआ है, तब से कुष्ठ पीड़ित अपनी क्षमता के अनुरूप कार्य करते आ रहे हैं।
आश्रम में कुछ महिला कुष्ठ पीड़ित, जहां चावल में कंकड़ बिनने का काम करती हैं तो कुछ जैविक खाद बनाने में योगदान देती हैं। साथ ही कई महिलाएं, आश्रम की गौषाला में काम करती हैं। इसके साथ ही आश्रम में कोई चाक बनाता है तो कोई दरी। महत्वपूर्ण बात यह है कि रसोई की जिम्मेदारी भी कुष्ठ पीड़ित महिलाएं संभालती हैं। यह कुष्ठ पीड़ितों की रोज की दिनचर्या में शामिल है और कुछ न कुछ काम करने के बाद, कुष्ठ पीड़ितों के चेहरों में एक आत्मसंतोष भी दिखता है।
सोंठी कुष्ठ आश्रम के सुधीर जी कहते हैं कि आश्रम में परिवार का माहौल है। ऐसी परंपरा की शुरूआत संस्था के संस्थापक स्व. सदाषिव गोविंद कात्रे जी ने की थी। परिवार की भावना होने के कारण सभी को लगता है कि यह मेरा है और उसी पारिवारिक भावना के कारण सभी लोग, अपना कुछ न कुछ योगदान देना चाहते हैं। सभी के लिए व्यवस्थाएं एक जैसी हैं। जो आश्रम में रह रहे हैं, वही लोग यहां की व्यवस्थाओं को संभाल रहे हैं।
निष्चित ही, सोंठी आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों ने समाज के सामने अपने स्वाभिमान को जिस तरह जीवंत बना रखा है, वह समाज की सबसे बड़ी बुराई भिक्षावृत्ति पर तमाचा है। कई कुष्ठ पीड़ित, धार्मिक जगहों और फुटपाथों पर भिक्षावृत्ति को अपनी किस्मत समझते हैं, उन्हें सोंठी आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों से सीखने की जरूरत है। साथ ही समाज के लोगों को भी कुष्ठ पीड़ितों के मनोबल को बढ़ाने के लिए आगे आना होगा, तब कहीं जाकर कुष्ठ रोग के प्रति, समाज में व्याप्त संकीर्ण मानसिकता भी खत्म होगी।
समाज की मुख्यधारा से जुड़ने लगे कुष्ठ पीड़ित
समाज में कुष्ठ रोगियों के लिए मानसिकता अच्छी नहीं रही है। षिक्षा और जागरूकता के बाद अब कुष्ठ पीड़ितों के प्रति धारणा बदली है। यही वजह है कि कुष्ठ पीड़ित भी अब समाज की मुख्यधारा से जुड़ने लगे हैं। कुष्ठ पीड़ितों के उत्थान में सोंठी के आश्रम प्रबंधन ने बड़ी भूमिका निभाई है, जिसका परिणाम अब सबके सामने हैं। जिन कुष्ठ पीड़ितों को लाचार समझा जाता था, वे आश्रम में ऐसे-ऐसे कार्य करते हैं, जिसे देख और सुनकर सहसा विष्वास नहीं होता। कात्रे जी ने जो बुनियाद डाली थी, उसे गणेष दामोदर बापट ने मजबूत करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है। जिसके कारण आज कुष्ठ पीड़ितों का आत्मबल और स्वाभिमान बढ़ा नजर आता है।
कुष्ठ रोग को ‘साध्य’ मानकर अक्सर लोग, कुष्ठ रोगियों से दूरी बनाते थे, लेकिन षिक्षा के प्रसार और जागरूकता ने लोगों की सोच में काफी बदलाव किया है। हालांकि, कुष्ठ पीड़ितों को समाज में वह सम्मान नहीं मिल रहा है, जितना उन्हें मिलना चाहिए। बावजूद, कुष्ठ रोगियों ने इन स्थितियों से मुकाबला करते हुए अपने जीवन के लिए नया रास्ता तैयार किया है। कुष्ठ पीड़ितों ने ठाना है कि वे किसी पर बोझ नहीं बनेंगे और यही वजह है कि सोंठी आश्रम के कुष्ठ पीड़ित, अनेक कार्यों में पारंगत हो गए हैं।
सोंठी आश्रम में रहने वाले कुष्ठ पीड़ित, दरी से लेकर चाक और जैविक खाद बनाते हैं। इसके अलावा गौषाला की देखरेख के अलावा हॉलर मिल भी आश्रम में रहने वाले कुष्ठ रोगी ही चलाते हैं। साथ ही आश्रम के लोगों के कपड़ों की सिलाई करने वाला व्यक्ति भी कुष्ठ पीड़ित ही है, इन कुष्ठ रोगियों के जज्बे के आगे सामान्य लोगों के भी पसीने छूट जाए।
आश्रम में 20 साल से रह रहे जगदीष श्रीवास बताते हैं कि वे दरी बनाने का काम करते आ रहे हैं। आश्रम का माहौल, घर जैसा ही है। यहां तक कि घर से भी अच्छा है। आश्रम में पूरा सम्मान मिलता है।
इसी तरह आश्रम में चाक बनाने वाले दयाराम यादव कहते हैं कि सभी कुष्ठ पीड़ित अपने-अपने स्तर पर काम करते हैं। हम लोग चाक बनाते हैं। बारिष के बाद चाक बनाना बंद हो जाएगा। इसके बाद सीमेंट की बोरी के धागे से रस्सी बनाने का काम करते हैं।
टेलरिंग का काम करने वाले विनोद नायक को आश्रम, घर के समान ही लगता है। सभी लोग परिवार के सदस्य लगते हैं और सबसे पारिवारिक रिष्ता हो गया है। विनोद बताते हैं कि आश्रम में काम करने से शरीर में स्फूर्ति रहती है। इलाज तो निरंतर जारी रहता है।
आश्रम में रहने वाली कुष्ठ पीड़ित महिलाएं भी अपना योगदान देने में कहीं भी पीछे नहीं है। कुछ महिलाएं जहां चावल बिनती हैं या फिर गौषाला से गोबर उठाती हैं, वहीं एक महिला हैं, गणेषी बाई, जो आश्रम में बनने वाली जैविक खाद की जिम्मेदारी संभालती हैं। जैविक खाद बनाने के लिए वह रोजाना कुछ न कुछ कार्य करती हैं और उसके साथ 2 अन्य महिलाएं भी काम करती हैं। इस तरह गोबर और गीले कचरे से खाद बनाई जाती है।
सोंठी कुष्ठ आश्रम के सुधीर जी कहते हैं कि सभी अपनी क्षमता के हिसाब से कार्य करते हैं, आश्रम में कोई बाध्य नहीं है। कुछ नहीं कर पाते, वह भी आश्रम परिसर की साफ-सफाई कर देते हैं। कई कुष्ठ पीड़ित हैं, जो भगवान की भक्ति में रमे रहते हैं।
सोंठी आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों ने तमाम झंझावतों और सामाजिक दूरियों के बाद भी अपने स्वाभिमान का जो दमखम दिखाया है, वह निष्चित ही बड़ी बात है। जिन कुष्ठ पीड़ितों को समाज द्वारा आत्मबल देना चाहिए, वही समाज कहीं न कहीं, उनसे दूर नजर आता है, फिर भी कुष्ठ पीड़ितों ने इन बातों को भुलकर सामाजिक समरसता को बढ़ावा दिया है। साथ ही खुद की क्षमता का पूरा उपयोग करते हुए आश्रम को भी आगे बढ़ाने में अहम योगदान दिया है।
स्व. सदाषिव गोविंद कात्रे जी का अहम योगदान
चांपा इलाके के सोंठी गांव में भारतीय कुष्ठ निवारक संघ की स्थापना करने वाले सदाषिव गोविंद कात्रे, खुद भी कुष्ठ से पीड़ित थे। यही वजह रही कि उन्होंने कुष्ठ पीड़ितों के दर्द को समझा और 1962 में कुष्ठ आश्रम की शुरूआत की। छह दषक पहले कुष्ठ पीड़ितों को दर्द को हरने को जो कोषिषें की गई थीं, निष्चित ही काफी हद तक कामयाबी मिली है। कुष्ठ पीड़ितों के लिए कात्रे जी ने अपना जीवन समर्पित कर दिया, जिन्हें आज भी आश्रम में रहने वाले कुष्ठ पीड़ित याद करते हैं। वर्तमान में गणेष दामोदर बापट की देखरेख में आश्रम का संचालन हो रहा है।
छह दषक पहले कुष्ठ पीड़ितों को हेय की दृष्टि से देखा जाता था और कुष्ठ को ‘साध्य’ रोग मानकर कुष्ठ पीड़ितों से हर कोई दूरियां बनाता था। 1960 में जब कात्रे जी चांपा आए तो कुष्ठ पीड़ितों की दुर्दषा देखकर उन्होंने भारतीय कुष्ठ निवारक संघ की स्थापना की और कुष्ठ पीड़ितों की सेवा में लग गए। शुरूआत में 2-3 कुष्ठ पीड़ित ही कात्रे जी के साथ रहते थे। इस दौरान कात्रे जी स्वयं साइकिल से गांव-गांव जाते और लोगों से एक मुट्ठी चावल सहयोग मांगते। साथ ही कुष्ठ के प्रति लोगों के भ्रम को भी दूर करने की कोषिष करते। इसी बीच कात्रे जी के परिश्रम और दृढ़ इच्छा शक्ति को देखकर एक समाजसेवी ने आश्रम निर्माण के लिए एक एकड़ जमीन, झोपड़ी और कुंआ दान किया। इस तरह आश्रम का संचालन शुरू हुआ और फिर आश्रम के कुष्ठ पीड़ितों के सहयोग के लिए बहुत से हाथ आगे आए। खास बात यह है कि कात्रे जी गांव-गांव, जब जाते तो लोग उनकी सराहना करते, लेकिन कुछ लोग सामाजिक बेड़ियों के चलते सहयोग नहीं कर पाते थे। धीरे-धीरे ऐसे लोग भी कुष्ठ पीड़ितों की मदद के लिए सामने आए। जिसका परिणाम है कि कुष्ठ पीड़ितों के प्रति जहां लोगों की सोच में काफी बदलाव आया है और साथ ही चिकित्सा ज्ञान बढ़ने से कुष्ठ रोग ‘असाध्य’ होने की भी जानकारी सामने आई।
उधर आश्रम में जैसे-जैसे कुष्ठ पीड़ितों की संख्या बढ़ती गई, वैसे-वैसे आश्रम में भी विकास के काम होते गए। इसी वक्त कुष्ठ पीडितों ने ही आश्रम के किनारे एक तालाब की खोदाई की, जिसे आज ‘माधव सागर’ के नाम से जाना जाता है। दूसरी ओर आश्रम के संस्थापक रहे स्व. सदाषिव गोविंद कात्रे के संस्मरण में समाधि स्थल का भी निर्माण किया गया है। समाजसेवा के लिए दिए गए कात्रे जी के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। वर्तमान में गणेष दामोदर बापट पर आश्रम के संचालन की जिम्मेदारी है। उन्होंने भी कुष्ठ पीड़ितों के हितों के लिए काम करने में ता-उम्र गुजार दी। उम्र के अंतिम पड़ाव के बाद भी बापट जी आज भी कुष्ठ पीड़ितों की सेवा में लगे हुए हैं।
सोंठी आश्रम के सुधीर कहते हैं कि कात्रे जी स्वयं कुष्ठ से पीड़ित थे, इसलिए वे कुष्ठ पीड़ितों के दर्द को जानते थे। कुष्ठ पीड़ितों के लिए पेट भरने के लिए ‘भिक्षावृत्ति’ एक ही रास्ता था। कात्रे जी चाहते थे कि कुष्ठ रोगी भिक्षावृत्ति से दूर हो और स्वाभिमान से जीए।
सोंठी आश्रम के सुधीर जी मानते हैं कि कुष्ठों के उत्थान और आश्रम को अग्रसर करने में समाज का बड़ा योगदान है। प्रारंभ में ही समाज के लोगों ने कात्रे जी को संबल दिया। कात्रे जी को एक मुट्ठी चावल के साथ हर महीने 1 रूपये सहयोग देते थे। समाज के बल पर ही आश्रम ने यह रूप हासिल किया है। शासन से भी मदद मिलती है।
सोंठी के भारतीय कुष्ठ निवारक संघ द्वारा कुष्ठ पीड़ितों की सेवा के अलावा सामाजिक दायित्व का भी निर्वहन किया जाता है। आश्रम परिसर में कई साल नेत्र षिविर लगाए गए, जहां हजारों लोगों को लाभ हुआ है। इसके साथ ही षिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय कुष्ठ निवारक संघ महती भूमिका निभा रहा है। आश्रम के पिछले हिस्से में सुषील विद्या मंदिर संचालित है, जहां कक्षा 8 वीं तक के बच्चे पढ़ाई करते हैं। अहम बात यह है कि आश्रम के अंतर्गत सुषील बालक छात्रावास भी है, जहां छग के अलावा मध्यप्रदेष, पष्चिम बंगाल और झारखंड के बच्चे भी पढ़ते हैं। बालक छात्रावास में 74 बालक हैं, जिनमें 40 बच्चे ऐसे हैं, जो कुष्ठ पीड़ितों के परिवार के हैं। अन्य बच्चे गरीब परिवार के हैं। आश्रम द्वारा 1986 में सुषील बालक छात्रावास को शुरू किया गया था और इस संस्थान को कुष्ठ पीड़ितों के परिवार के उत्थान के लिए शुरू किया गया था, जो आज भी अनवरत जारी है।
कुष्ठ पीड़ितों के स्वास्थ्य की भी भारतीय कुष्ठ निवारक संघ को शुरू से ही चिंता रही है, जिसके कारण आश्रम परिसर में ही एक हॉस्पिटल खोला गया है, जहां हर दिन कुष्ठ पीड़ितों का इलाज होता है। जिन कुष्ठ पीड़ितों की समस्या बड़ी होती है, उनके इलाज के लिए बीच-बीच में दूसरे शहरों से भी विषेषज्ञ डॉक्टर पहुंचते हैं। इस तरह आश्रम में कुष्ठ पीड़ितों के जीवन को संवारने के लिए हर स्तर पर प्रयास हो रहा है, जिसकी बानगी आश्रम में पहुंचते ही देखने को मिलती है।