सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

लघुकथा - चिंटी का सामर्थ्य

वैज्ञानिक युग में हम चांद पर पहुंचकर आसियां बसाने की जितनी बातें कर लें, लेकिन हमारासामर्थ्यकई जंतुओं के मुकाबले कम ही नजर आता है। हम जितना भी विकास कर लें, जितनी भी नई तकनीक के माध्यम से जीवन को सुलभ बना लें, लेकिन उन जैसी सामर्थ्य की शक्ति नहीं ला सकते। यही कारण है कि मनुष्य में पूरा सामर्थ्य तो दिखता है, किन्तु समाज उत्थान की दिशा में यह कोई काम नहीं आता। मनुष्य को 84 लाख योनियों में उच्च स्थान दिया गया है और सोचने-समझने की शक्ति भी दी गई है, लेकिन जो सामर्थ्य का परिचय, उसे देना चाहिए, वह मनुष्य नहीं दे पाता। ऐसी स्थिति में मनुष्य-मनुष्य में सामर्थ्यवान होने की लड़ाई चलती है औरखिसियाई बिल्ली की तरह खंभा नोचेकी तर्ज पर एक-दूसरे के सामर्थ्य को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं।
मनुष्य के सामर्थ्य से इतर एक दूसरा पहलू है, वह चिंटी का सामर्थ्य है। चिंटी में गजब का सामर्थ्य दिखता है। दुनिया में वैसे तो कई अन्य प्राणियों की तरह चिंटी छोटा होता है, परंतु सामर्थ्यवान होने की असली तस्वीर चिंटी में ही दिखाई देती है। जब वह अपने से अधिक वजन के एक-एक अन्न के दाने को ले जाता है और यह सिलसिला तब तक चलते रहता है, जब तक उस स्थान से अंतिम ‘ अन्न का दाना’ खत्म न हो जाए। साथ ही चिंटियों में सामर्थ्य की लड़ाई कहीं दिखाई नहीं देती, वे बस ‘कर्म किए जा, फल की इच्छा न करने पर’ विश्वास करते हैं। फलस्वरूप, जब सामर्थ्यवान होने की तुलना होती है तो चिंटी से मनुष्य, कहीं आगे होता है। केवल बलशाही व बुद्धिजीवी होने का दंभ भरकर, ‘सामर्थ्यवान’ नहीं बना जा सकता है, यही शाश्वत सत्य है।