रविवार, 31 अक्तूबर 2010

छत्तीसगढ़ का गुप्त प्रयाग, शिवरीनारायण

छत्तीसगढ़ के गुप्त प्रयाग के नाम से दर्षनीय स्थल षिवरीनारायण को जाना जाता है और इस धार्मिक नगरी को छग षासन द्वारा टेंपल सिटी घोशित किया गया है। वैसे तो इस आस्था के केन्द्र की पहचान प्राचीन काल से है, लेकिन धार्मिक नगरी घोशित होने के बाद इसकी प्रसिद्धि और ज्यादा बढ़ गई।छत्तीसगढ़ के कई धार्मिक नगरी और पुरातन स्थलों में दषकों से मेला लगता आ रहा है। मेले में खेल-तमाषे के अलावा सिनेमा पहुंचता है, जो लोगों के प्रमुख मनोरंजन के साधन होते हैं। साथ ही मेले में समाप्त होते-होते षादी विवाह का दौर षुरू हो जाता है। वैसे तो मेले के आयोजन की विरासत दषकों से छत्तीसगढ़ में षामिल हैं, जो परिपाटी अब भी जारी है। जांजगीर-चांपा जिले में बसंत पंचमी के दिन से कुटीघाट में पांच दिवसीय मेला षुरू होता है। इसके बाद छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा माने जाने वाल षिवरीनारायण मेला, माघी पूर्णिमा से प्रारंभ होता है, जो महाषिवरात्रि तक चलता है। इस बीच जिले के अनेक स्थानों में मेला लगता है और अंत धूल पंचमी के समय पीथमपुर के महाकलेष्वर धाम में लगने वाले मेले के साथ समाप्त होता है। इस मेले में भगवान षिव की बारात में बड़ी संख्या में नागा साधु षामिल होते हैं। इन स्थानों में लगने वाले मेलों में दूसरे राज्यों से भी लोग पहुंचते हैं और यहां की विरासत तथा इतिहास से रूबरू होते हैं। दूसरी ओर महाषिवरात्रि पर्व के दिन प्रदेष का सबसे बड़े एकदिवसीय मेले का अयोजन छग की काषी खरौद लक्ष्मणेष्वर धाम में होता है, जहां श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है और लोगों की आस्था देखते ही बनती है। भक्त कई घंटों तक कतार में लगकर भगवान षिव के एक दर्षन पाने लालायित रहते हैं। इधर हर वर्श माघी पूर्णिमा से षिवरीनारायण में लगने वाले मेले में उड़ीसा, मध्यप्रदेष, उत्तरप्रदेष, महाराश्ट्र, झारखंड तथा बिहार समेत कई राज्यों के दर्षनार्थी आते हैं और माघी पूर्णिमा पर महानदी के त्रिवेणी संगम में होने वाले षाही स्नान में सैकड़ों की संख्या में जहां साधु-संत षामिल होते हैं, वहीं हजारों की संख्या में दूरस्थ क्षेत्रों से आए श्रद्धालु भी इस पावन जल पर डूबकी लगाते हैं। माघी पूर्णिमा के स्नान को लेकर मान्यता है कि माघ मास में दान कर त्रिवेणी संगम में स्नान करने से अष्वमेध यज्ञ करने जैसा पुण्य मिलता है और कहा जाता है कि इस माह की हर तिथि किसी पर्व से कम नहीं होता। इस दौरान किए जाने वाले दान का फल दस हजार गुना ज्यादा मिलता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। षिवरीनारायण को पुरी में विराजे भगवान जगन्नाथ का मूल स्थान माना जाता है और मान्यता है कि भगवान जी माघी पूर्णिमा के दिन यहां विराजते हैं। यही कारण है कि श्रद्धालुओं की आस्था यहां उमड़ती हैं और वे चित्रोत्पला महानदी, षिवनाथ और जोंक नदी के त्रिवेणी संगम में स्नान कर भगवान जगन्नाथ के दर्षन करने पहुंचते हैं। षिवरीनारायण में कई दषकों से मेला लगता आ रहा है। 15 दिनों तक चलने वाले इस मेले की अपनी एक अलग ही पहचान है। अविभाजित मध्यप्रदेष के समय से षिवरीनारायण का यह मेला आकर्शण का केन्द्र रहा है, अब भी इसकी चमक फीकी नहीं पड़ी है। यही कारण है कि मेले को देखने और भगवान के दर्षन के लिए दूसरे राज्यों के दर्षनार्थी भी पहुंचते हैं। साथ ही विदेषों से भी लोग आकर भगवान की महिमा का गान करते हैं और इस विषाल मेले को देखकर मंत्रगुग्ध हो जाते हैं। षिवरीनारायण में भगवान षिवरीनारायण मंदिर के अलावा षिवरीनारायण मठ, केषवनारायण मंदिर, सिंदूरगिरी पर्वत, लक्ष्मीनारायण मंदिर, षक्तिपीठ मां अन्नपूर्णा, मां काली मंदिर षामिल हैं। यहां का भगवान षिवरीनारायण मंदिर का निर्माण कल्चुरी काल में हुआ था। ऐसा माना जाता है िकइस मंदिर की उंचाई, प्रदेष के सभी मंदिरों की उंचाई से अधिक है। मंदिर की दीवारें में उत्कृश्ट स्थापत्य कला की छठा दिखाई देती है, जो यहां पहुंचने वाले दर्षनार्थियों को अपनी ओर आकर्शित कर ही लेती है। यहां के प्राचीन षबरी मंदिर, जो ईट से बना है, इसमें की गई कलाकृति अब भी पुराविदों और इतिहासकारों के अध्ययन का केन्द्र बना हुआ है। सिंदूरगिरी पर्वत के बारे में कहा जाता है कि यहां अनेक साधु-संतों ने तप किया है और उनकी यह स्थान तप स्थली रही है। इस पर्वत से त्रिवेणी संगम का मनोरम दृष्य देखते ही बनता है। किवदंति है कि प्राचीन काल में जगन्नाथ पुरी जाने का यह मार्ग था और भगवान राम इसी रास्ते से गुजरे थे तथा माता षबरी से जूठे बेर खाए थे। इस बात का कुछ प्रमाण जानकार बताते भी हैं। इसी के चलते षिवरीनारायण में लगने वाले मेले में उड़ीसा से आने वाला उखरा और आगरा से आने वाले पेठे की खूब मांग रहती है तथा इसकी मिठास को लेकर भी लोगों में इसे खरीदने को लेकर उत्सुकता भी देखी जाती है। षिवरीनारायण पुराने समय में तहसील मुख्यालय था और इसकी भी अपनी विरासत है। साथ ही भारतेन्दुयुगीन साहित्य की छाप भी यहां पड़ी है और यह नगरी उस दौरान साहित्यिक तीर्थ बन गई थी। मेले के पहले दिन से ही रामनामी पंथ के लोगों का भी पांच दिवसीय राम नाम का भजन प्रारंभ होता है। पुरे षरीर में राम नाम का गोदमा गुदवाए रामनामी पंथ के लोग भगवान राम के अराध्य में पूरे समय लगे रहते हैं। इससे नगर में राम नाम का माहौल देखने लायक रहता है। षिवरीनारायण मेले के बारे में मठ मंदिर के मठाधीष राजेश्री महंत रामसुंदर दास का कहना है कि षिवरीनारायण में मेला का चलन प्राचीन समय से ही चला आ रहा है और यह छग का सबसे पुराना और बड़ा मेला है। इस मेले में दूसरे राज्यों के अलावा सैकड़ों गांवों के लाखों लोगों की भीड़ जुटती है। लोगों के मनोरंजन के लिए सर्कस, सिनेमा, मौत कुआं समेत अन्य साधन आकर्शण का केन्द्र रहते हैं। मेले की यह भी खासियत है कि यहां हर वह सामग्री मिल जाती है, जो दुकानों में नहीं मिलती। यही कारण है कि षिवरीनारायण मेले में लोगों द्वारा जमकर खरीददारी की जाती है। इसके अलावा षादी-विवाह की सामग्री भी लोग खरीदते हैं। उनका कहना है कि माघी पूर्णिमा से लगने वाले इस मेले के पहले दिन महानदी के त्रिवेणी संगम की निर्मल धारा पर लोग डूबकी लगाते हैं और खुद को धन्य महसूस करते हैं। इस दिन लाखों की संख्या में लोगों का आगमन षिवरीनारायण में होता है। पुरी से भी लोग आते हैं, क्योंकि भगवान जगन्नाथ एक दिन के लिए यहां विराजते हैं और वहां भोग नहीं लगता। साथ ही वहां के मंदिर के पट को भी बंद रखा जाता है। कुल-मिलाकर षिवरीनारायण के जगन्नाथ धाम में श्रद्धालु भगवान की भक्ति में रमे रहते हैं। माघी पूर्णिमा की सुबह भगवान षिवरीनारायण के दर्षन के लिए सैकड़ों किमी से श्रद्धालु जमीन पर लोट मारते मंदिर के पट तक पहुंचते हैं। माना जाता है कि ऐसा करने से जो भी मनोकामना होती है, वह पूरी होती है। माघी पूर्णिमा पर यहां आने वाले श्रद्धालुओं को कई स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा भोजन और नाष्ता प्रदान किया जाता है। षिवरीनारायण के नगर विकास समिति द्वारा पिछले कई बरसों से दूर-दूर से आने वाले भक्तों को भोजन कराने की व्यवस्था की जाती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि समिति द्वारा लगातार दो दिनों तक बिना रूके, भोजन प्रदान किया जाता है। एक पंगत के उठते ही दूसरी पंगत बिठा दी जाती है। इस तरह हजारों की संख्या में श्रद्धालु भोजन स्वरूप भगवान षिवरीनारायण का प्रसाद ग्रहण करते हैं। समिति के अध्यक्ष राजेष अग्रवाल का कहना है कि दूसरे राज्यों से भी भक्त आते हैं और सुबह से ही भूखे-प्यासे वे भगवान के दर्षन करने में लीन रहते हैं। इस तरह जब वे भगवान के दर्षन प्राप्त करने कर लेते हैं तो उन्हें भोजन कराकर आत्मीय तृप्ति मिलती हैं। उनका कहना है कि ऐसा पिछले कई वर्शों से किया जा रहा है, ऐसी परिपाटी आगामी समय में कायम रखी जाएगी।बहरहाल षिवरीनाराण में लगने वाले मेले की छाप अब भी वैसा ही बरकरार है, जैसे बरसों पहले थे। मेले में आने वाली लोगों की भीड़ की संख्या में बदलते समय के साथ जितना फर्क पड़ता है, वह नजर नहीं आता। हालांकि मेले और यहां हर बरस होने वाले महोत्सव को लेकर राज्य सरकार की बेरूखी जरूर नजर आ रही है और आयोजन पर पिछले बरस से विराम लग गया है। सरकार द्वारा सहयोगात्मक रवैया अपनाया जाता है तो इस प्राचीन मेले की पहचान को आगे भी कायम रखा जा सकता है।

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

छत्तीसगढ़ की काषी खरौद

छत्तीसगढ़, धार्मिक नगरी और पर्यटन की दृष्टि से एक समृद्धषाली राज्य है। अधिकांष इलाके वन क्षेत्रों से आच्छादित हैं और पहाड़ों के मनोरम दृष्य भी है। साथ ही प्रदेष में अनेक ऐसे धार्मिक स्थान है, जहां लोगों की आस्था उमड़ती है। ऐसा ही एक धार्मिक स्थल लक्ष्मणेष्वर धाम खरौद है, जिसे छत्तीसगढ़ की काषी के नाम से भी जाना जता है। अपनी पुरातात्विक महत्ता के कारण पुराविदों और इतिहासविदों के अध्ययन का यह नगरी हमेषा से ही केन्द्र रहा है। खरौद की एक पुरातात्विक और धार्मिक विरासत है, जिसे अब मंदिरों में बनी कलाकृति और षिलालेखों से जाना जा सकता है। पुरातन धरोहरों को समेटे मंदिरों की दीवारों व षिलालेखों पर कई ऐसे ष्लोक हैं, जिससे रामायणकालीन समय की याद ताजा हो जाती है।
जिला मुख्यालय जांजगीर से 55 किमी और बिलासपुर रेलवे जंक्षन से 65 किमी दूर बसे इस धार्मिक नगरी खरौद की पहचान तालाबों की नगरी के रूप में भी होती है। लक्ष्मणेष्वर की नगरी में 126 तालाब हैं, जिससे छत्तीसगढ़ी में बुजुर्गों द्वारा छह आगर छह कोरी कहा जाता है। खरौद में यह देखने में आता है कि जिस ओर नजरें घुमाएं, उस ओर तालाब जरूर दिखता है। साथ ही इन तालाबों के किनारे मंदिर बना हुआ दिखता है। खरौद के नामकरण को खरदूषण राजा से भी जोड़ा जाता है, वैसे पुराविद, खरौद में षैव परंपरा होने की बात कहते हैं। बदलते समय के साथ और मंदिरों का जीर्णोद्धार नहीं होने से कई मंदिर जहां खंडित हो गए हैं तो कई तालाब भी अब इतिहास बन चुके हैं। फिर भी खरौद में पुरातात्विक धरोहरों के कई अजूबे पहचान कायम है, जिसे देखने श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं। खरौद में महाषिवरात्रि पर लगने वाला सबसे बड़ा मेला पूरे छत्तीसगढ़ में विख्यात है और इस दिन लक्ष्मणेष्वर धाम में भक्तों का रेला उमड़ता है। मंदिर का पट सुबह 4 बजे खुलते ही श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है और भगवान के दर्षन का सिलसिला देर रात तक चलता रहता है।

खरौद वैसे अनेक मंदिरों का केन्द्र है और सबकी अपनी-अपनी अलग-अलग विरासत है। नगर में स्थित भगवान लक्ष्मणेष्वर का मंदिर की महिमा अपार है और इसकी कई खासियतें हैं। 12 वीं षताब्दी में बना यह मंदिर लगभग 110 फीट चैड़ा भू-भाग में स्थित है और 30 फीट का गोलाई लिए हुआ है। महत्वपूर्ण बात यह है कि मंदिर में स्थापित लक्ष लिंग जमीन से करीब 48 फीट उपर स्थित है। इस लक्ष लिंग में एक लाख छिद्र होना माने जाते हैं और श्रद्धालु, श्रद्धाभाव से यहां एक लाख चावल चढ़ाकर मन्नतें मांगते हैं। लक्षलिंग में हमेषा जल भरा रहता है और खराब भी नहीं होता, जबकि यह लक्षलिंग जमीन तल से अत्यधिक उपर है। माना जाता है कि लक्षलिंग में जो जल चढ़ाया जाता है, वह मंदिर के पिछले हिस्से में स्थित कुण्ड में चला जाता है। जिससे कुण्ड कभी सूखता नहीं है। भक्तों में आस्था है कि भगवान षिव के दर्षन मात्र से क्षय रोग दूर हो जाता है। लक्ष्मणेष्वर मंदिर के चारों ओर बड़ी दीवार बनी हुई और मंदिर के भीतर बड़ी जगह बनाई गई है, जिससे वृहदाकार निर्माण की बात पुराविद कहते हैं। मंदिर के बाहर एक कुआं स्थित है, जहां सिक्के डाले जाने की परंपरा है, यह कहा जाता है कि सिक्के के दीवार से नहीं टकराने पर षुभ होता है। भक्तों में यह भी मान्यता है कि यहां सच्चे मन से जो भी मांगा जाता है, वह पूरी होती है। इसी के चलते खरौद में महापर्व महाषिवरात्रि के अलावा सावन महीने में हर सोमवार और तेरस पर भक्तों की भीड़ देखने लायक रहती है। इन अवसरों पर दूसरे प्रदेषों से भी दर्षनार्थी भगवान लक्ष्मणेष्वर के दर्षन के लिए पहुंचते हैं। लक्ष्मणेष्वर मंदिर के अलावा खरौद में प्राचीन ईंदल देव और षबरी माता का मंदिर भी है। ईंदलदेव का मंदिर ईंट से बना है और जानकार इसे 6 वीं षताब्दी में बने होने की बात कहते हैं। ईंदलदेव मंदिर को जिले का सबसे पुरातन मंदिर माना जाता है, जिसकी दीवारों पर अनोखी कलाकृति बनाई गई है। ईंट के बने होने के कारण इतिहासविदों द्वारा हमेषा यहां षोध कार्य किया जाता है और विदेषों से भी लोग पहुंचकर यहां से जानकारी लेते हैं। पुरातत्व विभाग द्वारा प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित किए जाने से मंदिर में किसी तरह निर्माण करने पर रोक है। ईंदलदेव मंदिर की जीर्ण होने की स्थिति में कुछ साल पहले पुरातत्व विभाग ने जीर्णोद्धार कराया था, इससे मंदिर को लोहे के राड से बांधा गया था। इस मंदिर की खासियत यह भी है कि इसका मुख्य द्वार पीछे की ओर और द्वार पर मां गंगे की तस्वीर उकेरी गई है। ईंदलदेव मंदिर में कई अनेक खूबियां हैं, जिसके चलते यह मंदिर पर्यटकों और पुराविदों को अपनी ओर वर्षों से आकर्षित करता आ रहा है।

षबरी मंदिर की अपनी एक पुरातात्विक पहचान अब भी कायम है। मंदिर के द्वार पर अद्धनारीष्वर की प्रतिमा स्थित है, जिसमें भगवान षिव और पार्वती की तस्वीर उकेरी गई है, जो पर्यटकों का केन्द्र बिन्दु होता है। षबरी मंदिर के कुछ हिस्से फर्षी पत्थर से बने हैं तो उपरी हिस्सा ईट से बनाया गया है। ईंट से बने होने के कारण इस मंदिर को भी देखने इतिहासविद और पुराविद पहुंचते हैं। षबरी मंदिर के षिलालेख में भी कई पुरातन ष्लोक लिखे गए हैं, जिससे खरौद नगरी के पुरातन गुणगान का पता चलता है और इन मंदिरों के दर्षनार्थ श्रद्धालु पहुंचते हैं।

फिलहाल खरौद को छत्तीसगढ़ षासन द्वारा दर्षनीय स्थल घोषित किया गया है, लेकिन जो विकास इस नगरी का होना चाहिए, वह नहीं हो सका है। मंदिर के आसपास श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए सामुदायिक भवन जैसी अन्य सुविधाओं की जरूरत है, मगर अब तक ऐसी कोई पहल नहीं की गई है। साथ ही नगर पंचायत द्वारा भी ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया है। पुरातत्व विभाग के अधीन सभी मंदिरों के होने से निर्माण नहीं कराए जा पा रहे हैं, जबकि मंदिर में हर वर्ष चढ़ावे से लाखों रूपये की आय होती है। इस आय का अब तक कोई हिसाब नहीं रखा गया है और मंदिर की पूजा-अर्चना कार्य में लगे पुजारी ही इन राषियों को आपस में बांट लेते हैं। वैसे यहां ट्रस्ट बनाने की मांग समय-समय पर उठती रही है, किन्त यह पहल भी अधूरी है।

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

पहाड़ का सीना चीर, अनवरत बह रही धारा

छत्तीसगढ़ में पहाड़ों पर कई मंदिरों का निर्माण हुआ है और यहां बरसों से देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। पहाड़ पर विराजित डोंगरगढ़ की मां बम्लेष्वरी हो या फिर कोरबा जिले की मां मड़वारानी। यहां भक्त, विराजित देवियों के साल भर आराधना करते हैं। नवरात्रि के दौरान इन मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है, जहां आस्था उमड़ती है। सैकड़ों सीढ़ियां चढ़कर भखे-प्यासे श्रद्धाभाव लेकर भक्त इन धार्मिक आस्था के केन्द्रों तक पहुंचते हैं। छत्तीसगढ़ में ऐसी अनेक मिसालें देखने को मिलती हैं, जहां की प्राकृतिक रमणीयता श्रद्धालुओं तथा दर्षनार्थियों का मन मोह लेती है और वे भक्तिभाव में रम जाते हैं।
जांजगीर-चांपा जिले के तुर्रीधाम ऐसा ही एक धार्मिक स्थल है, जहां पहाड़ का सीना चीरकर जल की धारा बरसों से अनवरत बह रही है। यह अद्भुत नजारा देखकर दर्षन के लिए पहुंचने वाले दर्षनार्थी एकबारगी दंग रह जाते हैं कि आखिर पहाड़ के भीतर से किस तरह जल की धारा बह रही है। तुर्रीधाम में हर बरस सात दिनों का मेला लगता है, जहां छत्तीसगढ़ समेत उड़ीसा से भी लोग आते हैं। सावन महीने में तो भक्तों का रेला मंदिर में देखने लायक रहता है। यहां पड़ोसी राज्यों से भी श्रद्धालु दर्षनार्थ पहुंचते हैं। जिला मुख्यालय जांजगीर से 30 किमी दूर सक्ती क्षेत्र के तुर्रीगांव में भगवान षिव का मंदिर स्थित है। यह नगरी तुर्रीधाम के नाम से विख्यात है। ऋषभतीर्थ से षुरू हुई जलधारा आगे चलकर करवाल नाले में तब्दील हो जाती है, जहां से कलकल करती धारा बहती है। इस नाले की खासियत यह भी है कि मंदिर के समीप हमेषा जल भरा रहता है और पानी की धार अनवरत बहती रहती है। इस धार्मिक नगरी में स्थित भगवान षिव मंदिर के पिछले हिस्से से जल की धारा हर समय बहती है, चाहे गर्मी हो या फिर बरसात। तुर्रीगांव के रहवासियों का तो यहां तक कहना है कि गर्मियों में पहाड़ से निकलने वाली जल की धारा और तेज हो जाती है। वह धारा मंदिर के नीचले हिस्से से होते हुए करवाल नाला में जाकर मिल जाती है, जबकि भगवान षिव का मंदिर पहाड़ से सैकड़ों फीट नीचे बना है। जानकारों का कहना है कि मंदिर में स्थापित लिंग भी नीचे है और नीचे जाने के लिए सीढ़ी का निर्माण किया गया है। इस निर्माण को भूमिज षैली का नाम दिया गया है। तुर्रीधाम में मंदिर का निर्माण जैसा हुआ है और जिस तरह से पहाड़ से जल की धारा बह रही है, कुछ ऐसी ही स्थिति मध्यप्रदेष के चित्रकोट स्थित हनुमान पहाड़ में है, जहां भूमिगत जल बहता है। यहां भी लोग यह नहीं जान पाए हैं कि पहाड़ के उपर कहां से जल की धारा बहना षुरू हुई है। वहां ऐसा जल स्त्रोत बना है, जहां हर मौसम में जल की धारा बह रही है। तुर्रीधाम में ऐसा ही नजारा हर समय देखने को मिलता है। तुर्रीधाम के ग्रामीण छत्तराम का कहना है कि पहाड़ से जल कहां से बह रहा है, वे नहीं जानते। जल की धारा पहाड़ से होते हुए करवाल नाला में जाकर मिलती है। उनका कहना है कि पहाड़ में अनेक वनौषधि रहती है। इसके चलते ग्रामीण इस जल को कीटनाषक के रूप में छिड़काव करते हैं। एक और महत्वपूर्ण बात है कि पहाड़ से बह रहा जल कभी खराब नहीं होता, यह जल गंगाजल की तरह हमेषा वैसा ही रहता है। इस कारण से लोगों की श्रद्धा बढ़ती जा रही है। इस जल स्त्रोत के संबंध में किवदंति है कि तुर्रीगांव का एक चरवाहा, जानवर चराने गया था। इसी दौरान उसे भगवान षिव के दर्षन हुए। षिवजी ने उसे वर मांगने को कहा तो चरवाहा ने कहा कि मुझे धन-दौलत, सोने-चांदी, हीरे-जेवरात नहीं चाहिए, गांव में हमेषा पानी की किल्लत बनी रहती है। आप कृपया करके इस समस्या से छुटकारा दिलाइए और ऐसा कुछ कीजिए कि बारहों महीने यहां जल उपलब्ध रहे। गांव के बुजुर्गों के अनुसार तब से तुर्रीधाम में चट्टान से पानी अनवरत बह रहा है और गांव में कभी भी पानी की दिक्कतें नहीं हुई है। भीषण गर्मी में भी कोई परेषानी सामने नहीं आती। उस चरवाहे के वंषज अब भी गांव में निवास करते हैं। समय के बदलते चक्र के साथ यहां मंदिरों का निर्माण होता चला गया और यह एक धाम के रूप में स्थापित हो गया। पुरातत्व के जानकार एवं जिला पुरातत्व समिति के सदस्य प्रो। अष्विनी केषरवानी का कहना है कि तुर्रीधाम, करवाला नाला के तट पर बसा है, जहां श्रद्धालु भगवान षिव के दर्षन के लिए आते हैं। हर वर्ष लगने वाले मेले में लोगों की भीड़ उमड़ती है। अनेक विषेषताओं के कारण तुर्रीधाम के प्रति लोगों की आस्था दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। मंदिर के उपर तट पर स्थित पहाड़ से अनवरत जल की धारा बरसों से बह रही है, जो रमणीय है और षोध का विषय है कि आखिर ऐसा क्यों और किस कारण से हो रहा है। गर्मी के दिनों में धारा और तेज होने को लेकर भी पुरातत्व के जानकारों को कार्य किए जाने की जरूरत बनी हुई है।

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

हरियाली की रखवाली मां के हाथ में

जांजगीर-चांपा जिले के ग्राम पहरिया के पहाड़ में मां अन्नधरी दाई विराजित हैं। करीब 30 एकड़ क्षेत्र में फैल इस पहाड़ में हजारों इमारती पेड़ है, जिसे लोगों के द्वारा नहीं काटा जाता। पहाड़ में लकड़ियां पड़ी रहती हैं और दीमक का निवाला बनती है, मगर लकड़ियों को उपयोग के लिए कोई नहीं ले जाता। यह भी लोगों के बीच धारणा है कि जो भी मां अन्नधरी दाई के पहाड़ पर स्थित इमारती लकड़ी को घर लेकर गया, उस पर मां की कृपा नहीं होती और उस पर दुखों का पहाड़ टूट जाता है। उसे और उसके परिवार पर आफत आ जाती है। यही कारण है कि पहाड़ पर लकड़ियां सड़ती-गलती रह जाती हैं, लेकिन उसे कोई हाथ नहीं लगाता। इस तरह मां ही हरियाली की रखवाली करती हैं और यह पर्यावरण संरक्षण की दिषा में सार्थक पहल हो रही है। साथ ही इससे समाज में भी संदेष जाता है, क्योंकि आज की स्थिति में जिस तरह जंगल काटे जा रहे हैं, वहीं पहरिया में जो लोगों के मन भावना है, उससे निष्चित ही पर्यावरण संरक्षण की दिषा में कार्य जरूर हो रहा है। जिला मुख्यालय जांजगीर से 20 किमी तथा बलौदा विकासखंड से ग्राम पहरिया की दूरी करीब 10 किमी है। पहरिया, चारों ओर से पहाड़ों और हरियाली से घिरा हुआ है, लेकिन मां अन्नधरी दाई जिस पहाड़ में स्थित है, वह जमीन तल से काफी उपर है। करीब 100 फीट उपर पहाड़ पर हजारों की संख्या में छोटे-बड़े इमारती पेड़ हैं, जिससे हरियाली तो फैली हुई है। साथ ही पेड़ों की कटाई नहीं होने से पर्यावरण संरक्षण में यह सार्थक साबित हो रहा है। यही कारण है कि पहरिया समेत इलाके के लोगों में मां अन्नधरी दाई के प्रति असीम श्रद्धा है और साल के दोनों नवरात्रि में यहां ज्योति कलष प्रज्जवलित भक्तों द्वारा कराए जाते हैं। इसके अलावा मां की महिमा के बखान सुनकर दूर-दूर से लोग पहाड़ीवाली मां अन्नधरी दाई के दर्षन के लिए पहुंचते हैं। ग्राम पहरिया के दरोगा राम का कहना है कि लोगों में मां के प्रति आस्था की जो भावना है और पेड़ों के संरक्षण के प्रति जो लोगों में जागरूकता बरसों से कायम है, वह निष्चित ही समाज के अन्य लोगों के लिए एक अच्छा संदेष ही माना जा सकता है, क्योंकि जहां जंगल दिनों-दि कट रहे हैं और पर्यावरण के हालात बिगड़ रहे हैं, वहीं ग्राम पहरिया में मां अन्नधरी की महिमा की खाति जो परिपाटी चल रही है, वह काबिले तारीफ है और इसे अन्य लोगों को भी आत्मसात करने की जरूरत है। यदि इस तरह पहल अन्य जगहों में होने लगे तो वह दिन दूर नहीं, जब पेड़ों की अंधा-धुंध कटाई में कमी जरूर आ जाएगी। अंत में मां अन्नधरी दाई को प्रणाम और लोगों की आस्था को सलाम। निष्चित ही यह समाज के लिए प्रेरणादायी अवसर है।

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

नैला में विराजीं धन दुर्गा

जिला मुख्यालय जांजगीर से लगे नैला के रेलवे स्टेशन के पास श्री-श्री दुर्गा उत्सव समिति द्वारा विराजित की गई दुर्गा की प्रतिमा को देखने लोगों की भीड़ जुट रही है। मूर्ति की खासियत यह है की नव दुर्गा की प्रतिमा में २१ हजार चांदी के सिक्के जड़े गए हैं। इस मूर्ति की अनुमानित कीमत ८० से ९० लाख बताई जा रही है। नवरात्री के छठवें दिन शाम को जब दुर्गा को अद्भुत प्रतिमा स्थापित की गई, उसके बाद नैला स्टेशन के पास लोगों की सुबह से देर रात तक भीड़ लगी रही। समिति के सदस्यों ने बताया की संभवतः इस तरह की प्रतिमा अन्य राज्यों में माँ दुर्गा की प्रतिमा विराजित नहीं की गई है। छत्तीसगढ़ में तो ऐसी अद्भुत प्रतिमा और धन दुर्गा पहली बार विराजित हुई हैं।
समिति द्वारा पिछले साल १०-१० रूपये के सिक्के जड़कर माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाई गई थी। इस दौरान भी लोगों की आस्था उमड़ी थी। उससे पहले समिति के सदस्यों ने शिप और नारियल की प्रतिमा बनवाई थी। उसे भी लोगों ने खूब पसंद किया था। इन प्रतिमाओं को कोरबा के कलाकार गोरे स्वर आकृति दी जाती है। इस साल भी बनाई गई २१ हजार चंडी के सिक्के की प्रतिमा को उन्हीं ने ही आकृति दी है।
नवरात्री के तीन दिनों तक हजारों लोगों ने चांदी के सिक्के से बनी प्रतिमा को देखने पहिंचे और सभी होते नजर आये।
सभी पर माँ दुर्गा की कृपा बनी रहे। इसी आशा के साथ
आदि शक्ति माता को प्रणाम।

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

सीने पर आस्था की ज्योत

जांजगीर-चाम्पा जिले के टेम्पल सिटी शिवरीनारायण के थाना चौक के पास दुर्गा पंडाल में सारंगढ़ के बाबा संतराम ने सीने पर आस्था की ज्योत जलाई है, जिसे देखने लोगों की भीड़ उमड़ रही है। इससे पहले वे कई शक्तिपीठो में इस तरह आस्था प्रदर्शित कर चुके हैं। शारीर पर जवारा बो कर पुरे नौ दिन वे माँ नवदुर्गा की भक्ति में लीं रहते हैं। आज की इस कलयुग में इस तरह आस्था की मिसाल विरले ही पेश कर पाते हैं।

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

नारीशक्ति और नशाबंदी

समाज के विकास में आज बहुत बड़ी बाधा है तो वह है, नशाखोरी। नशा, मनुष्य का हर दृष्टी से नशा है, फिर लोग जागरूक होते नजर नहीं आ रहे हैं। यह सबसे बड़ा चिंता का विषय है। नशाखोरी की चपेट में युवा वर्ग ज्यादा आ रहे हैं। इससे निश्चित ही समाज का लगातार विघटन हो रहा है। नशाखोरी को रोकने सरकार की रूचि भी कहीं नजर नहीं आती। ऐसे में हमें लगता है, नारीशक्ति ही समाज की इस समस्या को खत्म कर सकती है। वैसे तो नारियों अबला कहा जाता है, लेकिन मेरा मन्ना है की जब नारीशक्ति जागृत हो जाती हैं तो फिर समाज में कोई भी कुरीति टिक नहीं पाती।
इस बात को सिध्ध कर नारियों ने कर दिखाया है। पिछले कुछ समय से शराबखोरी के चलते कई घर तबाह होते देखे गए हैं। इस स्थिति में अब नारी जाग गई हैं। इसी का परिणाम है की जगह-जगह शराब की वैध और अवैध बिक्री को लेकर आन्दोलन शुरू हो गए हैं। छत्तीसगढ़ के किसी न किसी इलाके में यह बात इन दिनों सुनने में आ रही है की स्व सहायता समूह समेत अन्य वर्ग की महिलाओं ने शराब बंदी के मोर्चा खोला। अभी हाल ही में रायपुर के अलग-अलग क्षेत्र की महिलाएं मुख्यमत्री डॉ रमण सिंह के जनदर्शन कार्यक्रम में शिकायत लेकर पहुंची। यहाँ मुख्यमंत्री ने महिलाओं की परेशानियों को गंभीरता से लिया और इस मामले में करवाई के निर्देश दिए। साथ ही अवैध बिक्री पर रोक लगाने की बात कही।
ऐसा माहौल पहली बार नहीं बना है, जब महिलाओं ने नशाखोरी का विरोध ना किया हो। वैसे भी नशाखोरी से सबसे ज्यादा महिलाएं ही प्रभाविर होती हैं। ऐसे में महिलाओं की शराब के खिलाफ मोर्च खोला जाना कई मायनों में अहम् है। यह बात भी सनातन काल से कही जाती रही है की महिलाएं ही समाज सुधरने में मुख्या भूमिका निभाती रही हैं।
नशाखोरी के चलते अपराध में लगातार वृद्धि हो रहे हैं, यह बात भी प्रमाणित हो गई है। ऐसे में यदि सरकार नशाखोरी को रोकने पहल ना करे तो भला इसे क्या कहा जा सकता है। सरकार कहती है की आकारी ठेके से करोड़ों की आय होती है। हमारा कहना है की क्या लोगों के घरों तबाह करके कमाए गए रुपयों की कोई अहमियत रह जाती है। वैसे भी छत्तीसगढ़ में खनिज का अपार भण्डार है, लेकिन सरकार है की रायल्टी चोरी को रोकने कोई कदम नहीं उठती, लेकिन समाज को बर्बाद करने के लिए हर साल शराब की दूकान बढ़ाये जा रहे हैं। ऊपर से गांवों में जिस तरह से अवैध ढंग से शराब की बिकवाली होती है, उससे पूरी सरकार कटघरे में कड़ी नजर आती है। मगर अफसोस इस राज्य में विपक्ष में बैठी कांग्रेस के नेता इस मुद्दे को उठाने के बजाय मूकदर्शक बने बैठे हैं। ऐसे हालात में नारी शक्ति को ही जागरूक होकर नशाबंदी के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी। नहीं तो अभी केवल घर तबाह हो रहे हैं, बाद में समाज का क्या स्थिति बनेगी, कहा नहीं जा सकता।